हमारे वो ...
वैसे तो
कुच्छ नहीं
हमारे सामने |
कुच्छ कहती नही हूँ
उनको
इसलिए कि
वो है
नेता जी के
बड़े ही
मुहलगे ||
आग मूत रक्खी है
मोहल्ले में
समझाती नहीं हूँ ...
जाने दो जीजी
कौन
ऐसो के
मूह लगे !!
फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Thursday, February 11, 2021
बड़े वो है ..... मुहलगे !
Wednesday, August 26, 2020
ये राहें तरक्की औ वो रोड़े क़यामत
ये राहें तरक्की औ वो रोड़े क़यामत ...
सड़क
जो काटती थी
उसे सड़क
जो काटती थी
हर तरह
हर तरफ
दिन रात
पहाड़ ही की
एक दिन
उस पर ...
चुप-चाप |
#landslide
Thursday, November 26, 2015
दादी के अचार सा खट्टा-मीठा तीखा-कडुवा : "संविधान"
जाने कैसे
जाने क्या क्या
मसाले डालकर
आम का
पुराना अचार
जो
डाला करती थी
दादीयां / नानीयां
उसका
जायका
ज्यादा मायने रखता था
या
वजह बनाने की ....
इस पर
बहस हो
या
सैकड़ो / हजारों
तरकीबों पर ...
या
इस पर कि
सब्जी - फलों तक ही
महदूद हो
हद-ऐ-अचार ...
या कि
गोश्त भी / हड्डियां भी हो !
इस फेहरिश्त में ,
बकौल सेक्युलर
खरामा खरामा
हाजमा दुरुस्त करने को !
मर्दानगी बढ़ाने को ....!!
या महज
खालिस जायके
की खातिर ??
अचार को
आम की पहुंच
और समझ से
कोसो दूर ...
इतना
कसैला / बेस्वाद
और
लगभग बेवजह
बनाने के
आधुनिकतम मनसूबे देखकर ...
क्या
आपकी आँखों में
आंसू नहीं आते ?
क्या
आपका जी भी
उल्टियाँ करने को
नहीं करता ...??
उल्टियाँ करता मुल्क
उम्मीद से तो
नहीं लगता...
Thursday, February 9, 2012
देस
जहां
मेरे नाम भी
एक जमीन हो
जिस पर
चला सकूँ हल
बो सकूँ
सपनों के बीज
जहां
सावन
तकादे ना कराये
ना ही
बिन बुलाये
बाढ़ / सूखा
थोप दिए जाए
जिसके बहाने
सरकारी अमरबेल
फिर
पनप जाए
मैं तो
परदेस में
ईटें बनाता हूँ
सुना है
मेरी
गिरवी
खपरैल पर
नेता मुरदार
वोट
माँगने आये रहे
ना
हम नाही गए
बटन दबाने
और
ऊँगली पर निसान
अरे
ये तो ईटा से
कुचल गयी
मुद्दा
हम तो
कब से
"देस" गए ही नाही !
Sunday, February 5, 2012
Wednesday, February 1, 2012
Thursday, January 19, 2012
मिटटी में खेलता बचपन
खो ना जाए मिटटी ही में
उसे पनपने दोगे ना !
अपने भागते जीवन में
उसे भी जगह दोगे ना !
कुचल तो नहीं दोगे ?
अंधी दौड़ में
कोई बचपन
गति
अन्धविकास की
थाम कर
कुछ क्षण
उसे राह दोगे ना !
वो क्या देगा ?
ये ना समझ पाओगे
अभी
तो भी
झंझावत में समय के
किनारे ढूंढ़ती
मानवी जीवन रेखा के
संबल के खातिर ही
अकिंचन बात मेरी
मान लोगे ना !
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