Tuesday, December 27, 2022

सेन्योरुभ्योर्मध्ये विषीदन्तमिदं - समर मध्य क्यों विहँसे गोविन्द ?

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|| सेन्योरुभ्योर्मध्ये विषीदन्तमिदं ||

सहजता
निश्छलता
करुणा सहज हास
स्वभाव है जिनका ,
जो स्वयं ही
माया पति
लीला प्रपंच रचते रहते , नित सभी !

वो ही ,
बस केवल वही तो ,
हंस सकते है !
रणभूमि में , वरन
श्मशान में भी !

घटोत्कच के उत्सर्ग पर ,
द्रोण के "नरो वा कुंजरो वा "
जैसे लांछनो पर भी, तो
रथ निकालते  कर्ण के
धर्म-वचनो पर भी ,
दुर्योधन के कुचक्र पर ,
दुर्वासा के प्रयोजन ,
और गांधारी के श्राप तक पर !

हँसना ही तो !
भूल गया है ,
अति-आधुनिक
बहु-संपन्न-प्रबुद्ध-सबल मानव ?
इसलिए तो कुरुक्षेत्र  में
केवल वो गुरु है ,
ईश्वर है !
और पार्थ, तो बेबस मानव है !

जो छीन रहे हँसी
दुधमुहों
नवविवाहिताओं
कुमारिकाओं तक की
वे हो कोई , कभी , कही
वही कुरुसेनाहै |
निश्चय ही अधम है
दनुज है ,
वही दानव है !
 
हास्य योग ही नहीं ,
अस्तु उपलब्धि है योग की !
चरम अवस्था है ध्यान की !!
पराकाष्ठा प्राणायाम की !!!

हास्य करुणा है !
हास्य अनुभव से अर्जित
अजेय निर्भयता है ! प्रिय पार्थ !

अस्त्र है हास्य
जो हर लेता है
विकट काल को
सभी प्रपंच और जंजाल को भी |

तभी तो
कुंठित कुरु ही नहीं ,
उद्धत वीर पाण्डु भी नहीं ,
न संजय, न तो धृतराष्ट्र ही , हँसे |

अस्तु ,गीता में हँसे तो
बस मेरे गोविन्द ही
राधा के रमण
बृज के गोपाल
रच कर युद्ध का
देखो कैसा महारास हँसे ....

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