सब ऐसा ही क्यों है
बदलता है
तो
बदलता क्यों है
जो थमा है
बदलता क्यों नहीं है
अजीब सी
तंद्रा
उदासी है
चहु ओर छाई है
जो
हर बदलाव की
खबर भर से
बैचैन
हो उठती है
कोहरे में
टटोल कर चलना
आँख वालों में
आदत
बन चुका है
सहन नहीं होती
धूप की चुभन
सदियों से
बंद आँखों को
ये कौन
आँख का अंधा
शोर मचाता
चला आ रहा है
इसे रोको
वरना
सब
देखने लगेंगे
और पायेंगे
ठगा सा
खुद को
तब
बड़ी शर्मिंदगी होगी
.....
खुद से |
फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Thursday, February 24, 2011
Monday, February 14, 2011
दिव्य प्रेम एक ही है, "श्री राधेकृष्ण" का
|
प्रेम को प्रेम ही कहे तो दुराग्रह और क्लिष्टता का शमन होता है , भ्रान्ति भी नहीं रहती | "प्रेम" के आरम्भ में बड़ी सुन्दर प्रतीति होती है , यहाँ प्रेम प्रयोजन होता है , प्रेमी अभिलाषी , अवलम्ब और प्रेमिका आधार | प्रेमी ,प्रेमिका के अंग , सञ्चालन , भाव , विचार , आचार , विभूति , ऐश्वर्य , आभा , ख्याति आदि सद्गुणों को अत्यंत तीव्रता से ग्रहण करता है | यहाँ वर्जनाओं और प्रेमी / प्रेमिका में दोष ढूंढे नहीं मिलते | प्रेम का प्राकट्य बड़ा अनिश्चित व विस्मयकारी होता है | अपने निजी मित्रों सम्बन्धियों तक से छुपा कर रखा जाने वाला यह भाव , प्रकट होने को आतुर रहता है | इसकी सफलता अभिष्ट के समक्ष उद्घाटित होने पर और उसकी अनिश्चित प्रतिक्रया पर पूर्णतया आश्रित रहती है | उचित स्थल , अवसर की प्रतीक्षा और अपने मनोभावों को श्रेष्ठतम कलेवर में प्रस्तुत कर पाने का स्वप्न संजोये प्रेमी ह्रदय , रातों को जगता है , दिन में जगता ही स्वप्न देखता है |
तुच्छ सांसारिक मोह ,व्यर्थ और अनुपादेय जान पड़ते है | भीतर बहुत क्लेश और पीड़ा में कोई वस्तु औषधि नहीं जान पड़ती | जब प्रेमी / प्रेमिका से मिलन कि भावना पराकाष्ठा पर पहुच जाती है और मन ना ना भय से ग्रस्त शंशय और संभ्रम की दशा में पहुच जाता है तो कई बार प्रेमी का व्यवहार असहज हो उठता है | इसमे विरले अवसरों पर व्यक्तित्व में आमूल और स्रजनात्मक परिवर्तन परिलक्षित होते है जो अपने आभामंडल से समस्त जगत को आलोकित , आनंदित करने का सामर्थ्य रखते है | ज्यादा अवसरों पर व्यक्तित्व में उतराव दिखता है | यही पर वह भेद प्रकट होता है जो प्रेम को सब भावनाओं में श्रेष्ठ और निष्कलुष बनाता है |
प्रेम के साक्षात लौकिक स्वरुप की लीलामय झांकी में दोनों पक्ष मानो मानव शारीर धर प्रकट हुवे हो ऐसी महिमा है श्री राधेकृष्ण अवतरण की | यहाँ राधा जी ही स्वयं श्री कृष्ण है और वैसे ही कृष्ण राधा ही हो गए है | आगे राधा को कृष्ण और कृष्ण को राधा पड़े |
प्रेम में अपेक्षा रहती है और जहा तक लौकिक समझ का प्रश्न है उसकी मर्यादा अनुसार , प्रेमी प्रेमिका का संयोग ही मिलन ही प्रेम की पूर्णता है | इस भाव से भी देखे और इसकी अपरिहार्यता को एक ओर रख कर भी देखे तो राधेकृष्ण सम्पूर्ण प्रेम को परिभाषित और पूर्ण करते है | भक्तों का यह अटूट विश्वास है कि गोलोक में सर्वेश्वर अन्तर्यामी प्रभु राधिका जी के साथ नित्य निवास करते है |
ये इंगित करता है कि लौकिक रूप में भी उस महा अवतार के मिलन को स्वीकार और पूज्य माना गया है | तथ्य और कथा कहती है , श्री कृष्ण के मथुरा प्रयाण के पश्चात राधे कृष्ण का विछोह अनंत हो जाता है | यह विकल्प जगतपति और युगांतकारी कृष्ण स्वयं चुनते है | श्री राधिका उनका समर्थन करती है | इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वे एक दुसरे को प्रेम नहीं करते अथवा श्री कृष्ण के सामने राधा का विछोह अनिवार्य शर्त रहा होगा | जैसे कहा गया है कि प्रेम अपनी पराकाष्ठा में सम्पूर्ण जगत को आप्लावित कर देता है और प्रेमी एक दूसरे को कण कण में व्याप्त सदा और सर्वत्र देख पाते है, फिर जगत की परिभाषाएं और विदम्बनायें उनके सामने बहुत तुच्छ हो जाती है | ना राधा कृष्ण एक दुसरे का त्याग करते है ना उनका प्रेम समाप्त ही होता है वरण वह अगले सोपान पर पहुचता है | जहा कृष्ण राधा है और राधा कृष्ण , फिर विछोह का तो प्रश्न ही कहा रह गया | यह पूर्णता को जग कल्याण हेतु समर्पित करने जैसा है | वो राधा कृष्ण ही है जो आगे दुष्टों का संहार कर गीता के अनमोल वचनों में सनातन धर्म को पुनरप्रतिष्ठित करने का महाव्रत पूर्ण करते है | जिसकी अक्षुन्न धारा में कलियुग के भीषण झंझावात भी भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ पाते |
आज की पीढी को आवश्यकता है कि वह जाने इस राधाकृष्ण अवतार को और उसके लोकोत्तर महात्म्य को भी | जिसने भारत भूमि को धरा का भूषण बनाया है | संत वेलेंटाइन के निर्वाण दिवस पर सभी भक्तों के ह्रदय में प्रभु के पदप्रिती का बाहुल्य हो यही कामना है |
श्री राधे राधे !
प्रेम को प्रेम ही कहे तो दुराग्रह और क्लिष्टता का शमन होता है , भ्रान्ति भी नहीं रहती | "प्रेम" के आरम्भ में बड़ी सुन्दर प्रतीति होती है , यहाँ प्रेम प्रयोजन होता है , प्रेमी अभिलाषी , अवलम्ब और प्रेमिका आधार | प्रेमी ,प्रेमिका के अंग , सञ्चालन , भाव , विचार , आचार , विभूति , ऐश्वर्य , आभा , ख्याति आदि सद्गुणों को अत्यंत तीव्रता से ग्रहण करता है | यहाँ वर्जनाओं और प्रेमी / प्रेमिका में दोष ढूंढे नहीं मिलते | प्रेम का प्राकट्य बड़ा अनिश्चित व विस्मयकारी होता है | अपने निजी मित्रों सम्बन्धियों तक से छुपा कर रखा जाने वाला यह भाव , प्रकट होने को आतुर रहता है | इसकी सफलता अभिष्ट के समक्ष उद्घाटित होने पर और उसकी अनिश्चित प्रतिक्रया पर पूर्णतया आश्रित रहती है | उचित स्थल , अवसर की प्रतीक्षा और अपने मनोभावों को श्रेष्ठतम कलेवर में प्रस्तुत कर पाने का स्वप्न संजोये प्रेमी ह्रदय , रातों को जगता है , दिन में जगता ही स्वप्न देखता है |
तुच्छ सांसारिक मोह ,व्यर्थ और अनुपादेय जान पड़ते है | भीतर बहुत क्लेश और पीड़ा में कोई वस्तु औषधि नहीं जान पड़ती | जब प्रेमी / प्रेमिका से मिलन कि भावना पराकाष्ठा पर पहुच जाती है और मन ना ना भय से ग्रस्त शंशय और संभ्रम की दशा में पहुच जाता है तो कई बार प्रेमी का व्यवहार असहज हो उठता है | इसमे विरले अवसरों पर व्यक्तित्व में आमूल और स्रजनात्मक परिवर्तन परिलक्षित होते है जो अपने आभामंडल से समस्त जगत को आलोकित , आनंदित करने का सामर्थ्य रखते है | ज्यादा अवसरों पर व्यक्तित्व में उतराव दिखता है | यही पर वह भेद प्रकट होता है जो प्रेम को सब भावनाओं में श्रेष्ठ और निष्कलुष बनाता है |
प्रेम के साक्षात लौकिक स्वरुप की लीलामय झांकी में दोनों पक्ष मानो मानव शारीर धर प्रकट हुवे हो ऐसी महिमा है श्री राधेकृष्ण अवतरण की | यहाँ राधा जी ही स्वयं श्री कृष्ण है और वैसे ही कृष्ण राधा ही हो गए है | आगे राधा को कृष्ण और कृष्ण को राधा पड़े |
प्रेम में अपेक्षा रहती है और जहा तक लौकिक समझ का प्रश्न है उसकी मर्यादा अनुसार , प्रेमी प्रेमिका का संयोग ही मिलन ही प्रेम की पूर्णता है | इस भाव से भी देखे और इसकी अपरिहार्यता को एक ओर रख कर भी देखे तो राधेकृष्ण सम्पूर्ण प्रेम को परिभाषित और पूर्ण करते है | भक्तों का यह अटूट विश्वास है कि गोलोक में सर्वेश्वर अन्तर्यामी प्रभु राधिका जी के साथ नित्य निवास करते है |
ये इंगित करता है कि लौकिक रूप में भी उस महा अवतार के मिलन को स्वीकार और पूज्य माना गया है | तथ्य और कथा कहती है , श्री कृष्ण के मथुरा प्रयाण के पश्चात राधे कृष्ण का विछोह अनंत हो जाता है | यह विकल्प जगतपति और युगांतकारी कृष्ण स्वयं चुनते है | श्री राधिका उनका समर्थन करती है | इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वे एक दुसरे को प्रेम नहीं करते अथवा श्री कृष्ण के सामने राधा का विछोह अनिवार्य शर्त रहा होगा | जैसे कहा गया है कि प्रेम अपनी पराकाष्ठा में सम्पूर्ण जगत को आप्लावित कर देता है और प्रेमी एक दूसरे को कण कण में व्याप्त सदा और सर्वत्र देख पाते है, फिर जगत की परिभाषाएं और विदम्बनायें उनके सामने बहुत तुच्छ हो जाती है | ना राधा कृष्ण एक दुसरे का त्याग करते है ना उनका प्रेम समाप्त ही होता है वरण वह अगले सोपान पर पहुचता है | जहा कृष्ण राधा है और राधा कृष्ण , फिर विछोह का तो प्रश्न ही कहा रह गया | यह पूर्णता को जग कल्याण हेतु समर्पित करने जैसा है | वो राधा कृष्ण ही है जो आगे दुष्टों का संहार कर गीता के अनमोल वचनों में सनातन धर्म को पुनरप्रतिष्ठित करने का महाव्रत पूर्ण करते है | जिसकी अक्षुन्न धारा में कलियुग के भीषण झंझावात भी भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ पाते |
आज की पीढी को आवश्यकता है कि वह जाने इस राधाकृष्ण अवतार को और उसके लोकोत्तर महात्म्य को भी | जिसने भारत भूमि को धरा का भूषण बनाया है | संत वेलेंटाइन के निर्वाण दिवस पर सभी भक्तों के ह्रदय में प्रभु के पदप्रिती का बाहुल्य हो यही कामना है |
श्री राधे राधे !
Tuesday, February 8, 2011
Thursday, February 3, 2011
आज से , अभी से...यही से |
इस देश को
एक झंडे
एक नक़्शे
एक भाषा
और
एक भाव में
देखना
असंभव है |
जब तक
कोई
आक्रमण ना हो
विजय ना हो |
युद्ध ही
मात्र विकल्प है
यदि तो
युद्ध ही सही
साथ खड़े हो
भुलाकर
अबूझ रेखाएं
आओं
सम्हाले
बनाए
मिटती
सिमटती
सीमाएं |
मात्र प्रहरी
नहीं लड़ पायेंगे
आक्रान्त
पडोसी से
आओ
एक हो
उन्हें
अपना
मंतव्य बताये
उनका
मनोबल बढ़ाये |
यही से
अभी से
तुम भी
मैं भी
सेनानी बन
लिखे
पढ़े
कहे
सुने
गुने
कुछ भी
जो पास हो
सहज हो
राष्ट्रहित में
हर संभव
कदम
उठाये |
पर
बढाने से पहले
जरुरी है
स्वर ना सही
कदम
मिलाएं
हाथ
मिलाएं |
जरुरी है
हर
स्वघोषित
महामना से
नजर मिलाएं
गर्व का भाव
गुनाह नहीं है
जरुरी नहीं है
मातहत ही
केवल
सर झुकाएं |
सेवाओं में भी
सरोकारों में भी
वय से
अनुभव से
अवदान से ही
सम्मान दे
मान पाए |
गर बदलना है
विडंबनाओं को
दोहराने से
तो सीखना होगा
पिछले अफसाने से |
बुरा नहीं है
इतिहास पढ़ना
बुरा है
पढ़ कर
भूल जाना |
उन्हें
तुम्हारी जयंतियों
और
मालाओं से
कभी
कही
सरोकार नहीं रहा
अरे
ये कर्तव्यपूर्ति कर
किसे भरमाते हो
क्या कभी
रक्त सिंचित
स्वतन्त्रता के
उपभोग पर शर्माते हो ?
यदि हां
तो
कभी पीछे मत चलना
गद्दारों के
ये यंत्र है
रुपयों के
हथियारों के |
यदि ना
तो
ये तय रहा
तुम्हे भी मिटना होगा
साथ
इनके
पिस जाते है
जैसे
गेहू के साथ
घून
तिनके |
एक झंडे
एक नक़्शे
एक भाषा
और
एक भाव में
देखना
असंभव है |
जब तक
कोई
आक्रमण ना हो
विजय ना हो |
युद्ध ही
मात्र विकल्प है
यदि तो
युद्ध ही सही
साथ खड़े हो
भुलाकर
अबूझ रेखाएं
आओं
सम्हाले
बनाए
मिटती
सिमटती
सीमाएं |
मात्र प्रहरी
नहीं लड़ पायेंगे
आक्रान्त
पडोसी से
आओ
एक हो
उन्हें
अपना
मंतव्य बताये
उनका
मनोबल बढ़ाये |
यही से
अभी से
तुम भी
मैं भी
सेनानी बन
लिखे
पढ़े
कहे
सुने
गुने
कुछ भी
जो पास हो
सहज हो
राष्ट्रहित में
हर संभव
कदम
उठाये |
पर
बढाने से पहले
जरुरी है
स्वर ना सही
कदम
मिलाएं
हाथ
मिलाएं |
जरुरी है
हर
स्वघोषित
महामना से
नजर मिलाएं
गर्व का भाव
गुनाह नहीं है
जरुरी नहीं है
मातहत ही
केवल
सर झुकाएं |
सेवाओं में भी
सरोकारों में भी
वय से
अनुभव से
अवदान से ही
सम्मान दे
मान पाए |
गर बदलना है
विडंबनाओं को
दोहराने से
तो सीखना होगा
पिछले अफसाने से |
बुरा नहीं है
इतिहास पढ़ना
बुरा है
पढ़ कर
भूल जाना |
उन्हें
तुम्हारी जयंतियों
और
मालाओं से
कभी
कही
सरोकार नहीं रहा
अरे
ये कर्तव्यपूर्ति कर
किसे भरमाते हो
क्या कभी
रक्त सिंचित
स्वतन्त्रता के
उपभोग पर शर्माते हो ?
यदि हां
तो
कभी पीछे मत चलना
गद्दारों के
ये यंत्र है
रुपयों के
हथियारों के |
यदि ना
तो
ये तय रहा
तुम्हे भी मिटना होगा
साथ
इनके
पिस जाते है
जैसे
गेहू के साथ
घून
तिनके |
Wednesday, February 2, 2011
दोस्ती की दुनिया
खुशगवार मौसम में
जैसे तबियत भी
और
मौका भी
दस्तूर भी
ऐसी खुशनसीबी सा
होता है दोस्त |
जब
गम से
और
दुनियावी थकावट
या
बनावटों से
उकताई आँखे
मुंदती हो
खुशबू भरे
ठन्डे
मगर
गर्म अहसासों से
सराबोर
बासंती झौके से ...
वो
उतर जाता है
सहलाते हुवे
सपना बन
मन की
अतल
सूनी
गहराइयों में
जैसे
स्वाति बूंद
चुपचाप
किसी
सीप में
उतर जाती है
मोती होने को |
प्रतिध्वनित होता है
मेरा हर स्पंदन
उस
सांझा मन में
कहना नहीं पड़ता
और
वो
भाप जाता है
मेरा
सारा दू:ख
संताप
जिसके साथ
जीवन की
सारी खुशिया
बाटी जा सकती है
केवल एक
चाय के प्याले से
ऐसा
बिना शर्त
बेतर्क
बेतुका (दुनिया के लिए)
होता है दोस्त |
दोस्त
तब भी
वहा भी
होता है
जब
कोई नहीं होता
मैं भी नहीं
तब भी
पीछे
होता है दोस्त |
जैसे तबियत भी
और
मौका भी
दस्तूर भी
ऐसी खुशनसीबी सा
होता है दोस्त |
जब
गम से
और
दुनियावी थकावट
या
बनावटों से
उकताई आँखे
मुंदती हो
खुशबू भरे
ठन्डे
मगर
गर्म अहसासों से
सराबोर
बासंती झौके से ...
वो
उतर जाता है
सहलाते हुवे
सपना बन
मन की
अतल
सूनी
गहराइयों में
जैसे
स्वाति बूंद
चुपचाप
किसी
सीप में
उतर जाती है
मोती होने को |
प्रतिध्वनित होता है
मेरा हर स्पंदन
उस
सांझा मन में
कहना नहीं पड़ता
और
वो
भाप जाता है
मेरा
सारा दू:ख
संताप
जिसके साथ
जीवन की
सारी खुशिया
बाटी जा सकती है
केवल एक
चाय के प्याले से
ऐसा
बिना शर्त
बेतर्क
बेतुका (दुनिया के लिए)
होता है दोस्त |
दोस्त
तब भी
वहा भी
होता है
जब
कोई नहीं होता
मैं भी नहीं
तब भी
पीछे
होता है दोस्त |
Monday, January 31, 2011
कागार
आकार ले रहा था
बवंडर
सागर के उस पार
जिसका पानी
सदियों से उपेक्षित
मानव अश्रुओं से
कड़ुवा गया है
अभी
असंतोष दूर है
अपनी
दहलीजों से
मगर
नहीं टलेगा
महज
खोखली
सरकारी दलीलों से|
हमारी अपनी
जमीन पर
अब
रेत उड़ने लगी है
नफ़रत की नागफनी पर
बारूदी फूल
पनपने
झरने लगे है
लोग
अपने में ही
सहमने
सिमटने लगे है
ये दूरियाँ
और
क्षेत्रीय दुराग्रह
राष्ट्र रूपी चदरिया को
चिंदी कर रहे है
सब
बंगाली
मराठी
उर्दू
असमिया
तमिल
तेलुगु
हिंदी
कर रहे है|
अब कबीर भी
निरपेक्ष नहीं रह गया
वंचितों में
ऐसे
संभ्रांत पल रहे है|
युवा
सपनों की
पूजीवाद प्रायोजित
मरीचिका में
स्वयं मृग हो
अपने ही को
छल रहे है|
युग बदलने वाले
रोज
दल बना रहे है
बदल रहे है|
कोहरे का ताल्लुक
मौसम से
नहीं रह गया
वैसा
सभी मौसम
कोहरे ही में
पल रहे है |
आप
कब
उधार लेकर
पता
बदल रहे है ?
बवंडर
सागर के उस पार
जिसका पानी
सदियों से उपेक्षित
मानव अश्रुओं से
कड़ुवा गया है
अभी
असंतोष दूर है
अपनी
दहलीजों से
मगर
नहीं टलेगा
महज
खोखली
सरकारी दलीलों से|
हमारी अपनी
जमीन पर
अब
रेत उड़ने लगी है
नफ़रत की नागफनी पर
बारूदी फूल
पनपने
झरने लगे है
लोग
अपने में ही
सहमने
सिमटने लगे है
ये दूरियाँ
और
क्षेत्रीय दुराग्रह
राष्ट्र रूपी चदरिया को
चिंदी कर रहे है
सब
बंगाली
मराठी
उर्दू
असमिया
तमिल
तेलुगु
हिंदी
कर रहे है|
अब कबीर भी
निरपेक्ष नहीं रह गया
वंचितों में
ऐसे
संभ्रांत पल रहे है|
युवा
सपनों की
पूजीवाद प्रायोजित
मरीचिका में
स्वयं मृग हो
अपने ही को
छल रहे है|
युग बदलने वाले
रोज
दल बना रहे है
बदल रहे है|
कोहरे का ताल्लुक
मौसम से
नहीं रह गया
वैसा
सभी मौसम
कोहरे ही में
पल रहे है |
आप
कब
उधार लेकर
पता
बदल रहे है ?
Sunday, January 30, 2011
हे राम ! ये हरी पत्ती , लाल पत्ती ! !!
तुम राम कह कर गए
कुछ काम भी
कहा तो था ...
मगर
तुम्हारी तस्वीरों से
तिजोरिया भरते भरते
तुम्हारे आदर्शों
जीवन मूल्यों को भी
बेच दिया
हमने
महंगे
बहुउपयोगी
डॉलर के बदले |
तुम्हारे चित्र छपी
हरी पत्ती से
अब
इस देश में
ख़रीदे जाते है
जिस्म
ईमान
और
वोट |
और
हर जुबां
जो
सच बोलती थी
बोल सकती थी
उसके होटों पर भी
चिपका दी है
हमने
तुम्हारे चित्र वाली
कुछ हरी पत्ती |
कुछ लाल पत्ती |
कुछ काम भी
कहा तो था ...
मगर
तुम्हारी तस्वीरों से
तिजोरिया भरते भरते
तुम्हारे आदर्शों
जीवन मूल्यों को भी
बेच दिया
हमने
महंगे
बहुउपयोगी
डॉलर के बदले |
तुम्हारे चित्र छपी
हरी पत्ती से
अब
इस देश में
ख़रीदे जाते है
जिस्म
ईमान
और
वोट |
और
हर जुबां
जो
सच बोलती थी
बोल सकती थी
उसके होटों पर भी
चिपका दी है
हमने
तुम्हारे चित्र वाली
कुछ हरी पत्ती |
कुछ लाल पत्ती |
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