फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Sunday, February 5, 2012
Wednesday, February 1, 2012
Thursday, January 19, 2012
मिटटी में खेलता बचपन
खो ना जाए मिटटी ही में
उसे पनपने दोगे ना !
अपने भागते जीवन में
उसे भी जगह दोगे ना !
कुचल तो नहीं दोगे ?
अंधी दौड़ में
कोई बचपन
गति
अन्धविकास की
थाम कर
कुछ क्षण
उसे राह दोगे ना !
वो क्या देगा ?
ये ना समझ पाओगे
अभी
तो भी
झंझावत में समय के
किनारे ढूंढ़ती
मानवी जीवन रेखा के
संबल के खातिर ही
अकिंचन बात मेरी
मान लोगे ना !
Saturday, January 14, 2012
सरकारी स्कूल
राम रहीम
सरजू बिरजू
पोलियो वाली दुलारी
सब
कट्ठे ही
रास्ता देखते है
टीचर दीदी का
जिसके सम्मान से
गाव का लाला
और सरपंच तक
ईर्ष्या करते है
यही कही
पढ़ाया जाता है
पाठ
समाजवाद का
जिसे
कागजो के शेर
और कुर्सियों के कारीगर
बदलने की कोशिश
करते रहते है
और हंसती रहती है
उनकी टीचर दीदी
नहीं टोकती उन्हें
उनकी ऐसी
नादानी पर !
Thursday, January 12, 2012
कुछ ख़त अजनबी पते पर अपनो के नाम ...
पहला ख़त
मेरे गाव की मिटटी को
जिससे ही पाया
प्यार दुलार
जहा अंकित हुवे
स्वप्न
आज भी
अमिट है
हे मातृभूमि !
सदा वंदनीया !
तुझे प्रणाम !
भूली नहीं होगी
तू मुझे
मैं भले भूल जाऊं
स्वार्थी हो परवश |
जैसे कण कण धूल का
सहेजा है
सब अच्छा बुरा
तूने
आदि से अब तक
मुझे भी विश्वास है
तेरे आँचल में
मेरी जगह
आज भी खाली है |
दूसरा ख़त
सभी बुजुर्गो को
माता पिता
दादियो नानियों
और असंख्य रिश्तों को
जिन्होंने
मुझे मेरा नाम दिया
आज भी
पुकारता है कोई
जब उस नाम से
लगता है
तुम्ही ने पुकारा है
जब कोई हाथ
छू जाता है
शीश को
लगता है
तुम्ही ने दुलारा है
तुम्हारा प्यार
मैं अब सबमे बाटता हूँ
अकेले में
भीतर ही
ख़त सब तुम्हारे
नित वाचता हूँ
आशीष दो
बनू सबका दुलारा
और मिलु जब
तुमसे कही ... कभी
तो नाज हो तुमको
तुम्हारा
नालायक , नटखट ... राजदुलारा
तीसरा ख़त
अपने बाल सखा को
जो छूट कर भी
नहीं छूटे
ना जाने कितनी बार
माने फिर रूठे
मना लेने का भरोसा
अब भी है मुझको
बस रूठने का हक़
बनाए रखना
यू ही
स्मृतियों में आना रोज
रौनक जीवन में
सवाप्नो में ही
सदा लगाए रखना |
चौथा ख़त
गुरुजनों को
सादर
क्या कहूँ उनसे
अभी
कर्मरत हूँ
लिख रहा हूँ
भविष्य
कठिन भी सरल भी
सब आपका दिया है
संबल हो
छाया हो
सूरज हो
दर्पण हो
क्या नहीं हो
मैं तो केवल
कृतज्ञता ही
अर्पण कर सका था
कर सकूंगा
सो करता हूँ |
पांचवा और
अंतिम ख़त
स्वप्नों के नाम
चहरे भी
नाम भी तमाम
स्वप्नवत ही लगते है
जीवन भी
जोकुछ भी है
पाया खोया
जो पाना है
मेल करता हूँ
तो पाता हूँ
स्वप्न सच ही होते है
जैसे स्वपन होते है
वैसे यकीं भी हो
तो स्वप्न ही साकार होते है
जैसे सब मेरे . मैं भी सबका
सिया राम मय सब जग जानी ,
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ||
जय हो ! शुभ हो ! ... लाभ भी हो
अवश्य ही
हां मगर शुभ हो !
Wednesday, January 11, 2012
Tuesday, January 10, 2012
कागज़ की नाव है कविता
कविता
जैसे कागज़ की नाव
समय सागर में
किनारे ढूंढ़ती सी
तैरती रहती है
नि:स्पृह ...
छूती है
परम को सहज ही
नहीं छूती
समय को
या समय ही
तैरता है
उस नाव के नीचे
उसी परम-आदर का
शब्दरूप है "गीता"
भगवत गीता रूपी कालजयी रचना करने वाले मात्र कवि श्री कृष्ण के परम चरणों में सादर समर्पित , उन्ही की रचना ... जय श्री कृष्ण !
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