Tuesday, April 20, 2010

आक्रोश

निष्कर्ष पर
पहुँचने की जल्दी,
जड़ है ,
कलियुगी
अव्यवस्थाओं की
त्वरित
प्रतिक्रियाएँ ,
अनियंत्रित,
अनाधिकृत,
अपरिपक्व ,
अपरिष्कृत ,
आक्रोश
रोग बन चुका है |
ये महानगर
ऐसे
रोगियों को
बेहतर इलाज
का
आश्वाशन देते है |
यहाँ
आप
अपनी
जिंदगी बेचकर
दवा खरीद सकते है ,
दुवा भी ,
दवाएं
महँगी है बहुत ,
कारगर कितनी है |
कोई नहीं बताता
यहाँ |

इन्तेजाम

ढूँढना मुझे ,
जब खो जाऊ मैं
और
मेरी स्म्रतियों
के स्मारक बनाना
पर
अभी तो कोई बात नहीं
मैं जिंदा भी हूँ
और किसी काम
का भी नहीं
क्योंकि
मेरे नाम पर
कोई
अन्याय
कर ना सकोगे
मैं जो टोक दूंगा
सो
इन्तेजार करो
क्या कहा ...
इंतज़ार नहीं कर सकते !
तो ...
कोई
इन्तेजाम कर लो !

एक छोटी सी कविता

एक छोटी सी कविता ,
मेरी गोद में
आ बैठी ,
और बड़े प्यार से ,
मेरे कानों में ,
कुछ बोल गयी |
उसका मतलब ,
तो ना समझ पाया ,
अब तक ,
पर ,
उसका वो मेरी तरफ
आना
और
मेरी गोद में बैठना ,
साधिकार ,
निश्चय ही
वो एक लम्हा
बन गया
मेरे लिए ,
छंद भी ,
गीत भी ,
रस भी ,
सच है
कि जब कविता होती है
तो सब होता है |
और
जरुरी नहीं
कि
जब सब हो ,
और
कविता भी हो !

फिर कोई नयी बात

लो फिर एक "डेडलाइन",
एक और फिर कतार में ,
हर खबर खड़ी है ,
जैसे ,
किसी इन्तेजार में |
कि कई और भी बातें ,
कई और भी चेहरे,
सुने हुवे , देखे हुवे ,
बुने हुवे ,
हो सकते थे ,
इस किताब का अगला पन्ना |
पर
जीवन को किसने जाना है ?
किसने बुनते देखा है ,
चाँद वाली बुढिया को,
भाग्य के ताने बाने |
हमने भी कितनी ठोंकरे
मारी होगी ,
राह के रोड़ो को ,
और ये धुल ,
इसमे कही हम भी शामिल होंगे ,
एक आध कतरा,
कही उतरा भी होगा किसी कि साँसों में ,
कि ना जाने कितने ओठों पर ,
मेरी अनगिनत बातों का
उधार बाकी है |
ये सब और बहुत कुछ
और भी अनर्गल
सोच कर
जब
थक जाता हु
फिर कोई नयी बात
कोई नया ख्वाब
बुनता हु
देखो
मगर तुम
मेरी अगली
कविता का
इन्तेज़ार मत करना ||

Monday, April 5, 2010

इसलिए

आधी शताब्दी
बाद भी
मच्छर ,
मलेरिया ,
और
अशिक्षा
से
मुक्ति ना दिला पाया
प्रशासन
आतंकवाद से
सुरक्षा का
दावा करता है


इसलिए
हर घर में
कछुवा
जलता हैं
जिसका
अब
ज्यादा
जोर
नहीं चलता है


देश में
राजनीति की
दो-दो
धुरियाँ हैं
मगर
उनमे
मतभेद,
मनभेद ,
दुरी की
अनगिनत
सोची समझी
मजबूरियां है |


इसलिए
देश
एकमत होकर
मतदान
करता है
अपना पेट
काटकर
इनका
घर भरता है |


लगान
अब
नहीं
चुकाना पड़ता
पहले ही
काट लिया जाता है
जड़ों से


इसलिए
छोटे किसान की
फसल
और
मध्यमवर्गीय की
बचत
पनप
नहीं पाती

महंगाई
चढ़ता सूरज हैं
सर छुपाने से
क्या होगा ?
शाम तलक
खुदा जाने
अंजाम
क्या होगा ?


इसलिए
आशाओं को
इच्छाओं को
ढूंढ़ ढूंढ़ मारों
ये
अभिजात्य ,
सामंत
और
भ्रष्टाचारियों
की
दासियाँ हैं
तुम कभी
इन्हें
अपने घर की
शोभा
बना ना सकोगे |


अरे ओ !
मूढ़ ,
पढ़े लिखे श्रमिक
ज़रा
देश की
अर्थी को
कान्धा तो लगा
अभी
श्मशान दूर हैं
क्या पता
मुर्दे में
फिर
जान आ जाये


इसलिए
ऐ आम इंसान
अपनी भीड़ को
नियंत्रित कर
थोड़ा
हासियें पर होले
अभी
इस
राजपथ पर
एक
लाल बत्तियों
का
काफिला गुजरेगा
जिसे
कईं
खाकी जिस्म
सलामी देंगे
जिनकी
आत्माएं
उन्होंने
नौकरियों के एवज में
गिरवी रख ली है ...


नौजवानों ,
नौनिहालों ,
तुम
किसी बात का
शोक ना करना
रंज ना रखना
तुम्हारें तमाशों में
कोई
कमी
रखी नहीं जाएगी


इसलियें
शहीदों ,
देशभक्तों ,
और
जन सेवकों ,
विशारदों
की
भीड़ को
चीरता
कोई
क्रिकेटिया
भारत रत्न से
नवाजा जाएगा
अभी रुको
जलसा
ख़त्म नहीं हुवा
अभी
इसी मोड़ से
बस
थोड़ी देर में
देश का
जनाजा जाएगा |

Monday, March 22, 2010

इस तरह या उस तरह

सोने पे सुहागा रख दू ..
सोना चाहिए मगर
तो !!
तो कैसे रख दू?
कहा से रख दू??
अब..
कह तो दिया ,
रख दू ..
वो भी पत्नी से !
तो..
रखना तो पडेगा ना !
बुरे वक़्त के
घटिया दौर में
खटना तो पडेगा ना !
सो खट रहा हु
बढ़ने की चाह में
रोज..
रोज थोड़ा..
थोड़ा थोड़ा
घट रहा हु
और
और जिंदगी...
जिंदगी..जिंदगी नहीं
जोड़ , जमा , गुणा भाग लगती है
किसी गरीब का फूटा भाग लगती है
रोज ..
रोज की शिकायतें
शिकायतों की पुरानी लिस्ट
और ..
और उन्हें सम्हाल कर रखता मैं..
मैं !
किसी पुराने दफ्तर के
घिसे हुवे बाबू सा ,
खीसे निपोरता ,
बगले झांकता ,
पीएफ और ग्रेज्युटी
के सहारे
बुढापा सवारने ,
घर बनवाने के
मनसूबे लेकर
तमाम एहतियात
और बंदोबस्त से
थोड़ी..
थोड़ी रिश्वत ..
ले ही लेता हु ,
जिसमे
बड़े बाबू का भी तो
बड़ा हिस्सा होता है
वो..
वो जो होता है
सो होता है
मगर..
मगर ,ये तो आप भी जानते है !
उतने में आज क्या होता है ..
बेटी के गहने ,
बेटे का फेशन
क्या कहने ?
काम..
काम जनाब ..
कोई नहीं रुकता
सबकी अपनी जिद है
कोई नहीं झुकता |
एक मैं ही हूँ
जो
आज भी
स्वदेशी की आड़ लेकर
दो जोड़ी खद्दर
और
एक बण्डल बीडी पे
गुजारा कर लेता हूँ
कल्लू की कच्ची चढाकर
उसी से उतारा कर लेता हूँ
बच्चों का भविष्य..
अब
उनकी आँखों में
साफ.. दिखता है
अनुकम्पा नियुक्ति ही
..अंतिम उपाय दिखता हैं ..
मगर !
मगर, उसके लिए भी
मुझे ही
फिर...
फिर , मरना पडेगा
"स्वाभाविक मौत"
कागज़ ही पर सही
हाँ ..
ये काम करना है
जल्दी ही करना है
करना ही पडेगा ..
तो ..
तो मरने का
एक अच्छा.. सा बहाना
ढूंढ़ रहा हूँ
खोया बचपन
बेसुध जवानी
अपना-बेगाना
गुजरा ज़माना
ढूंढ़ रहा हूँ
सब साथी बुढा रहे है
खखार
खिसिया
सठिया रहे हैं|
उनसे
सहारे दिलासे की आस
मजाक लगती है
उनसे
अब
अपनी ही नहीं धुलती
जैसे
जब
पुरानी संदूक नहीं खुलती
तो
क्या करते है?
तोड़ देते है
कुण्डी ताला
बेच देते हैं
पुराने गहने
गाँव के सुनार को
और
टूटी संदूक
कबाड़ी को
उस पैसे से
बन जाती है
एक दीवार
दोनों भाइयों के घरों के बीच
वही
उसी दीवार की
किसी दरार में
उग आता हूँ मैं
पीपल की कोंपल बन
इस
आस में
के
तिड्केगी , टूटेगी
वो दीवार
जो
बरसों की नमी
मौसम और समय की मार से
पहले ही
दरकने लगी हैं
नईं पीढ़ी का कोई तरुण
तोड़ ही देगा इसे
जब
वो इसे लांघकर
इस तरफ आयेगा
अपनी किसी बहन को बचाने
या
मुझपे अटकी
पतंग उतारने ही सही..
क्या फर्क पड़ता है
मुझे तो
बस
मुक्त होना है
इस तरह्
या
उस तरह
क्या फर्क पड़ता है |

Wednesday, March 10, 2010

पुरुषों को 67% आरक्षण की बधाई !

पुरुषों को 67% आरक्षण की बधाई !

स्त्री को पुरुष ने
एक बार फिर छला है
तैतीस का झांसा देकर
सड़सठ का दाव चला है

आरी ओ माया
शक्तिरूपा
तेरी प्रतिनिधि
नायिकाएं भी
कर रही थी
हाथ ऊपर
जब
अहसान जताकर
तेरी
भावी सत्ता को
बता दिया गया
धत्ता


तेरी तरफदारी
मैं क्यों करू
क्यों तेरी फ़िक्र में
मरू
तेरी तकदीर में रोना है
अब मान भी ले
शोषिता !
तू पुरुषों के हाथ का खिलौना है ...