Thursday, October 14, 2010

तिलिस्मों के देश में

तिलिस्मों के देश में
अब तक
बस
तिलिस्म ही
बुने गए है
नींद और ख्वाब
जो
आजकल
मुफ्त मिलते है
बाटे जाते है
रोटी से सस्ती
कीमत पर
थोक की थोक
टीवी और समाचारों के मार्फ़त
एक पूरी पीढ़ी
जी रही है
बुना गया यथार्थ
और
बड़ी बेशर्मी से
जिसके विवेक
और
प्रज्ञा को
किया जा रहा है
कुंद
छिनकर
मासूमियत
सौपे जा रहे है
भोग
भीड़
और
भीत के बीज
जो बोने है
उन्हें
आगे
ताकि
"उनकी"
अगली पीढ़ी को
मिल सके
आदर्श गुलाम

आदमी का कद
छोटा होता जा रहा है
हर उपलब्धि के साथ
पढ़ाया जा रहा है
लिप्सा की पाठशालाओं में
वेतालों को
तर्क सिद्धि का पाठ

Monday, October 11, 2010

आयाम से परे ...हम - तुम !

आयाम से परे ...हम - तुम !
मेरी सीमाएं
मुझे
बांधती है
तुमसे
और
तुम्हे लगता है
कि
मैं
तुम्हारी सीमाओं में
बंध सकूंगा
किसी तरह
कभी

तुम्हारा
यही चाहना
खिंच देता है
हर बार
एक लकीर
जिसे पार करना
मेरी सीमा से परे है
और
जो
सिमटी हुई है
तुम्हारी
अपनी परिधि के
बहुत भीतर
आत्म परिचय
और
जीवन दर्शन से
सर्वथा अनभिग्य करती
तुम्हे

तुम
और
तुम्हारे बीच कि
वह
रेखा
मैं देख सकता हू
मगर
उसे मिटाने को
लांघनी होगी मुझे
तुम्हारी परिधि
और
तुम हो
कि
इसे उपलब्धि मान
आत्ममुग्ध
जा बैठी हो
किसी और ही बिंदु पर
जो
परे है
इस पूरे आयाम से
जिसका समाधान
शायद
मैं कर पाता
गर
तुम यहाँ होती / कभी / बस एक क्षण ...

Saturday, October 2, 2010

फैसले पर प्रतिक्रिया !

एक ठेलेवाला
गरिया रहा था
दो दिन की
रोजी के घान पर

एक बच्चा
चिंतित था
पढाई में
पिछड़ने पर
हालाकि
कुछ
बच्चे
खुश थे
के
खेल पा रहे थे
पास पड़ोस के
मैदानों में

शहर
बुझा बुझा
अनबूझा
कुछ
डरा सहमा लगा

समाचार
सधे सधे से रहे
पड़ोसी
सटे सटे से रहे

गाव
जो
बाढ़ से नहीं घिरे थे
या जो
अभाव से परे थे
शहर बनने की
प्रसव वेदना में
ये दर्द भी
सह रहे थे

मंदिर
सुबह की आरती
और
मस्जिदे
जुम्मे की नमाज
से ज्यादा
कभी
सरोकार में ना रही थी
पहले कभी इतनी
अचानक
हर गेरुआ पत्थर
और
दूब की चादरों वाली
हरी मजार
बेसबब
नहीं रह गयी थी

बाजार
ठन्डे थे
सौदे गर्म थे
दिल
सुलग रहे थे
मगर
अल्फाज
समझौतों से नर्म थे

ज्वालामुखी पर
पत्थर
तो
रख दिया जनाब
बड़ी खूबसूरती से
मगर
सुख चुके
रक्त के धब्बो
और
टूट चुकी
सदियों पुरानी
सद्भाव की जंजीर का
क्या है कोई जवाब ?

Monday, September 27, 2010

विलंबित मौन है न्याय पर , राम पर !

विलंबित मौन है न्याय पर , राम पर !
उन्होंने मस्जिद तोड़ी
ये कहकर के
वो उनका मंदिर थी
उन्होंने
मंदिर भी तोड़ दिया
राम का
आस्था का
लोकतंत्र का

अब
किसका न्याय होगा ?
करेगा कौन ??
किसके पक्ष में ??
राम के ?
आस्था के ??
या
लोकतंत्र के ???

अंतहीन प्रश्नों के
आधारहीन सिलसिले है
लाशो पर
कारसेवको
और
उनके विरोधियों की
कितने
कारोबार खड़े है
उनकी ही रक्षा में
ये
विलंबित मौन है
न्यायालय नहीं बताता
क्योकि
नहीं जानता
कौन जिम्मेदारी लेगा ?
राजी कौन है ??
जनता मौन है !
नेता मौन है !
मंदिर मौन है !
मस्जिद मौन है !

आखिर इस फसाद का
व्यापारी
खरीददार
वो
गद्दार कौन है ???

लोकतंत्र बनाम जवाबदारी

वो तो चाहते है
के
मै लडू तुमसे
और
वो जीत जाए
उनका काहिलपन
उनकी लाचारी
कैसे भी
छुप जाए
चाहे मंदिर जले
मंदिर टूटे
अस्मते लूटे
या
गिरे लाशें
उन्हें
करने है
नित नए तमाशे
तुम देखो
तुम्हे क्या करना है
मै
अपने विवेक पर हू
उन्हें लगने दो
के
उनकी ही टेक पर हू ...

उनकी ही तर्ज पर
कल
कुछ तुम बोल देना
मै सुन लूंगा
मै
गर कुछ कह भी दू
तुम भी भूल जाना
इन्हें आसान है
इनकी तर्ज पर हराना ..

अब
न्यायालय
और चुनाव आयोग
निरपेक्ष नहीं लगते
तो क्या करे ?
व्यवस्था ना सही
अव्यवस्था के ही साथ
ईमानदारी ना सही
भ्रष्टाचार के हाथ
इस अन्धकार युग से
लोकतंत्र की नैया
कैसे भी खेनी है
वो जो कर चुके
उसकी भरपाई
हमें भी देनी है |

Tuesday, September 21, 2010

जंगल का सलीका

मेरे एक सवाल पर
बौखलाकर
उसने
सौ सवालों के
जवाब ही दे डाले ..

अकेले चने ने
भांड फोड़ा
क्योकि
उसने
ये कहावत
नहीं पढ़ी होगी

उसने
तेवर दिखाए
विरोध के
और
व्यवस्था
बदल गयी

वो
जानता था
एक वोट की कीमत
उसने
विरोध के नाम पर
कभी
आत्महत्या नहीं की

समूह में रहना
शेर की मज़बूरी थी
ये जानकार
हिरनों ने
कभी
अकेले शेर को
नहीं छेड़ा

जंगल
बढ़ता ही गया
उनके विरोध के बाद भी
वो
जो जंगल के नहीं थे
वो भी
जंगली हो गए ...

उस जंगल में
वैसे तो
हर जबान रहती थी
मगर
आपस में बात
सिर्फ
नोटों में होती थी
विविधता में एकता
उस जंगल की
ख़ास बात थी

Wednesday, September 15, 2010

"नारी" होने की परिभाषा ...

वो
ना कल मोहताज थी
ना आज है मुफलिस
किसी मर्द ने ही
बेचे
ख़रीदे होंगे
उसके जेवर
उसका बदन
फिर
उसके बचे खुचे
वजूद को
मिटाने के लिए
ये चाल भी
खूब चली गयी होगी
औरत
क्या सिर्फ
औरत के हाथो
यू फिर फिर
छली गयी होगी !

आदमी खूब जानता है
वर्चस्व के पैतरे
त्रिया चरित्र
जैसे जुमले
आज
जड़ों से
उखाड़ चुके
नारी की
स्वाभिमान की अभिलाषा
उसे ही
फिर गढ़नी होगी
एक
"नारी" होने की परिभाषा ...