स्वयं के लिए
दिव्य चक्षु न स्वीकार ,
मांगे थे सारथी को ?
क्योंकि
सुन ही सकता था
वह
पदचाप !
अपने ,
पराये ,
और
काल तक की !
फिर भी !
भावी का अनुगामी ,
सहज मानवी ,
टटोल रहा था |
भीतर के
स्थगित
यक्ष प्रश्न !
एक साक्षी ,
एक अंतरंग ही ,
अनुशासित
और
तटस्थ भी
वह सारथी भी था |
अत्याज्य ,
निम्नवर्ण सखा भी |
देख पाता था
रणक्षेत्र |
जहाँ,
स्वयं विधाता ,
उसकी ही तरह ,
रथ की बागडोर ले ,
उपस्थित था |
धर्मक्षेत्र में ,
कुरुक्षेत्र में |
निर्विकल्प ,
निर्द्वन्द्व ,
संशय रहित ,
शांत ,
स्मित हास
निज भाव लिए |
क्षत्रिय का
धर्म ही है ,
लड़ना !
तर्क नहीं ,
न्योते पर !
जुट आये थे ,
असंख्य वीर ,
क्षात्र धर्म निभाने ,
कुरुओं की भूमि पर !
तय करने ,
लक्षमण रेखा ,
धर्म और अधर्म की |
इस और
पाण्डु के वीर पुत्र ,
द्वारिका के धीश
और
धर्म पर प्राण अर्पित
असंख्य वीर |
धर्म का कुलीन विस्तार
एक ओर ,
तर्क और योग्यता के
अकाट्य तूणीर
एक ओर |
वही
कुरुक्षेत्र !
अब
धर्मक्षेत्र है !!
होने वाला
सदा के लिए |
पूछता था
नयनहीन ,
भाग्यवान ,
पर
कर्महीन राजा !
बता संजय !
मेरे
और अनुज के पुत्र ,
जो एकत्र हुवे है ,
धर्मभूमि कुरुक्षेत्र पर ....
उद्धत !
युद्ध को ,
वे क्या कर रहे ?
इस
निर्णायक क्षण ?
बता संजय !!
युद्ध ही की अभिलाषा ,
युद्ध ही गति जिनकी ,
वे लालायित ,
उत्साहित ,
उन्मादित ,
फड़कती भुजाओं ,
आंदोलित धमनियों वाले !
प्राणोत्सर्ग को
सदैव तत्पर ,
आ जुटे जो
रणांगण में !
अनेको ध्वजाएँ
रथ
महारथ लिए ...
क्या नाम ले
गिनती नहीं
वहाँ तक ...
शीश ही दिखते
दिग्पर्यंत ...
अपने अपने
सेनापति ,
अधुनातन अस्त्र सज्जित !
सैन्य !
और अतुलित भुजबल लिए ,
हर एक की
एक कथा ,
हर कथा ही महाकथा !
आ जुटी ज्यों
रचने
परम अति महा महाकथा !
उल्लासित ,
वीरों के जीवन के
मात्र उत्सव पर ,
युद्धोन्मादी !
घसीट लाया था ,
भविष्य गढ़ने वाले ,
कुम्हार
उस आचार्य को भी !!
प्रतिज्ञा की मुद्रिका से ,
श्वेत केश ,
श्वेताम्बर ,
श्वेत चरित,
वट जैसे पितामह को भी ....
पुरोहित !
और
ब्राह्मणो को भी !!
उस ओर भी
वचनबद्ध ,
सन्नद्ध ,
सबल वीरों के ,
अपार सागर में ,
सब वीर रत्न थे |
मनुज ,
वर्ण-संकर ,
किन्नर ,
और दनुज भी !
कोई योनि ,
कोई वर्ण ,
कोई वय ,
शेष न रही थी ....
भरत भूमि पर |
इसी क्षण को देखने
जीता रहा था !
वह प्रतिज्ञपुरुष !
उसके उत्साह का ,
उद्घोष ही था ,
जो डोलायमान कर रहा ,
ह्रदयों को !
अपने प्रताप के ,
जयघोष से !!
जिसके स्वर में
स्वर मिला
अधर्म के वंशधर
बजाते थे
तुरही
नगाड़े
रण भेरियाँ
युद्ध में भी थिर
धीर
वह सत्यव्रती
संयमी
शीलवान
कुन्तीपुत्र होना
जिसकी पहचान
उसकी विजय
सत्य की जय
निश्चित
अटल
अनंत तक
दिग-दिगंत तक
उसके घोष में
अवलम्ब ले
आ जुटे
अर्जुन
भीम नकुल सहदेव
सहित भूपतियों के
जो संधियों
और कृतज्ञता से
जकड़े
पूर्वाग्रही द्रुपद
और
गौरवान्वित विराट से
पुरुष-सत्ता को
प्रथम चुनौती सा
शिखंडी भी
भविष्य की डोर थामे
घोष करता था
जिसकी नियति से
जुडी थी
विजय
धर्म की
मोक्ष भीष्म का
इनसे विलग
सखा धर्म निभाते
भ्रात्र धर्म में बंधे
क्षात्र धर्म के भाष्यकार
वो स्वयं
नियंता के अवतरण
देने त्राण
नव प्राण
धर्म को , धरा को
द्वारिकापति
श्री कृष्ण
वो घोष करते
पाञ्चजन्य का
जल , वायु , पृथ्वी , अग्नि और आकाश
जिनका साम्य
केवल जड़ता में है
संहिता के
तर्क-सम्मत पालन भर में
वही बनेंगे
कलियुगी व्यवस्था
का आधार
देवो की पूजा
देवो के प्रसाद से
भविष्य के अर्जुन
जीता करेंगे
समर
यही सार था
धर्मपुत्र सेना का
जिसने
दिशाओं को
शत्रुओं को
कम्पायमान कर
शुभ के घटन का
संकेत भर किया था अभी ..
बहुत कठिन था
मछली की आँख में
अस्थिर प्रतिबिम्ब देख
लक्ष्य कर पाना
उससे भी कठिन था
इस रणभूमि में
अथाह
सैन्य
कोटि कोटि वीरों का
पार पाना
तनिक विचलित
नहीं अर्जुन
अप्रतिम
इस युग समर में
देखना भर चाहता था
अपनो को
परायों को
प्रतिद्वंद्वियों को
जो
भावी वश
हठ से ही
पक्ष ले खड़े थे
अमानवी
युद्धोन्मादी
राज हठ का
हे अच्युत !
कहा केशव से ...
"अच्युत"
लक्ष्येन्द्र के वाणो से
अचूक सम्बोधन
जो मानक है
विश्व बिंदु
जो स्थाई है
एकमेव
जगत की
सृष्टि
वैविध्य
और लय से
पहले भी
साथ भी
उपरांत भी
उसी का तो
आश्रय गहेगा अर्जुन
जब
ठहरना हो
चयन के
अनन्य
केंद्र पर
ले चलो हे "अच्युत"
जीवन / मरण
धर्म / अधर्म
नीति / अनीति
न्याय और अन्याय के
स्वार्थ और परमार्थ के
उस निर्णायक
संतुलन तक
जहां से
देख पाऊँ
उन नियति के आबद्ध
कथित वीरों को
जो
गरजते
जय घोष करते
पूर्वाग्रहों
और
दर्प के
दम्भ के हारे
जिताने आ जुटे है
उसे
जिसका जीवन
और
कुकर्म
मात्र लांछन बन
पी रहे
लहू
पीढ़ियों की अर्जित
कीर्ति का
संचित
यश का
कुल के
गौरव का
मानवता के
उत्कर्ष का
दुर्योधन ने
ज्यों युगपुरुष भीष्म से
यो कहा
देखिये पितामह
पाण्डु सेना को
उसकी समझ
और दृष्टि में
तनिक भी
संशय न था
सामने उसके
जो थे
भले बंधू
अभी थे
शत्रु बस
वैसे ही
गुडाकेश
हृषिकेश
उस सन्यस्थ को
सामने
जो दिखे
केवल
कुरु दिखे
शत्रुवत
शस्त्रसज्जित
उद्धत
पर
पार्थ को
धरती के
मनुज को
दिखे वहा
केवल
स्वजन
सखा
गुरु
और
किशोरवय
पुत्रवत
यह दृष्टि
अवश्य ही
माननीय थी
मानवीय भी
पर
विलग परिप्रेक्ष्य में
सन्दर्भ में
सार रूप
सत्य से पर
मोह से चिपटी
भ्रमित सी
खोजती थी
स्वार्थ के मरुथल में
मरिचिका सी
आहूत हुई
मूल्यहीन
आत्मीयता
पूछेगा अर्जुन
एक दिन
यू ही
तर्कों के तीक्ष्ण
तथ्यों के अकाट्य
वाण
मेरी ओर कर
जानते थे
जनार्दन
होनी को
होने के
कही पूर्व
नियोजित था
पांडवो का
अयोनिज जन्म
प्रकृति के
पंचतत्वों से
जिसका ज्ञान
स्वयं पार्थ को
रहा होगा
परन्तु इस क्षण
भावुकता में
बही जा रही
चेतना ने
झंझावात सा
प्रश्नो का खड़ा कर दिया
कृष्ण तो
फिर भी
निर्लिप्त
स्मित सुन रहे
स्वयं ही से
कह गया अर्जुन
जाति
और
कुलधर्म का
रटा रटाया ककहरा
जिस कुल का
रक्त ही
उसकी रगों में
न बह रहा
जिस जाति से
कही श्रेष्ठ
देवेन्द्र पुत्र को
कलयुगी विष्ठा सी
जाती और कुलधर्म
प्रिय हो गए
हो भी क्यों ना
उसी कुरु कुल में
जिसमे जन्मे थे
महान भीष्म
जन्मे थे
जन्मांध धृतराष्ट्र
और
दुर्योधन , जरासंध से
नराधम भी
जिन्होंने
लेशमात्र भी
चिंता न की
कभी
भूलकर भी
कुल धर्म की
जाती गौरव की
धन्य हो
तुम
नरश्रेष्ठ अर्जुन
तुम्हारे हृदय का
दौर्बल्य कह ले
चाहे
प्रलाप ही
बुद्धिवादी
कभी
झाँक ना पाएंगे
तुम्हारे
हृदय में चिरजीव
शिशु को
जो
प्रेम को
निष्ठाओं को
गरिमाओं को
जीने
जिलाने में
भूल ही बैठा
अबोध
कि
स्वयं का
सत्य क्या है
वो पूछ बैठा
ग्रंथियों में बंधा
चक्रधर से
जो ताक में था
इसी अवसर की
रखे तो पार्थ
अपनी दुर्बलता
खोलकर
नि:संकोच
और
वो कर जाए
आने वाली
असंख्य पीढ़ियों का
ग्रंथियों का
निर्णायक
अकाट्य
अंतिम
उपचार
अथ
अर्जुन विषाद योग
प्रथम सोपान
गीता का
जहां
विषाद ही
बन गया योग
संयोग
संजीवनी सी
ईश्वरीय वाणी के
आधिकारिक
प्रकटन का
रन तो
होता रहेगा
होकर रहेगा
पर
मंथन से पूर्व ही
अमृत बहा जो
अजस्र
आज भी
वैसा ही
प्रतिक पूजन रहित
प्रपंच के बिना ही
जिसका
अवगाहन कर
तर गयी
तर रही है
पीढ़ियां
जय श्री कृष्ण !
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पूजयपाद गुरूवर , माता-पिता और बड़ो के आशीर्वाद और श्री कृष्ण की अनन्य कृपा से से आज संवत २०७१ , ज्येष्ठ मास , शुक्लपक्ष , द्वितीया , गुरुवार (बृहस्पतिवार) को इंदौर नगरी के एकांत कक्ष में उसी माधव को उसी की कृति नए वस्त्रों में अपनी अत्यंत ही अल्प बुद्धि और समस्त अज्ञान के साथ समर्पित करता हूँ !
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भूमिका : प्रत्येक मन बुद्धि वाले प्राणी के जीवन में प्रत्येक क्षण कोई न कोई द्वंद्व चलता है , विषाद भी होता / होते है , अर्जुन को भी हुवा । ऐसा नहीं की प्रथम बार हुवा , ऐसा भी नहीं की श्री कृष्ण के समक्ष प्रथम बार हुवा । फिर यह योग कैसे बना , युगांतकारी और शिक्षा का माध्यम कैसे बना , इसी क्षण और रणस्थल जैसे अत्यंत व्यावहारिक व अमानवीय / क्रूर परिवेश में गीता का प्राकट्य , निश्चय ही इसे अनोखा और महान बनाते है । अर्जुन जैसे लक्ष्येन्द्र का डगमगाना , गांडीव धर देना , आत्मोत्सर्ग को प्रस्तुत होना , कोई अभिलाषा न रखना , अंतर्मुखी हो जाना , सब कुछ ईश्वर को यथारूप कह जाना , ऐसा जब हो तो समझियेगा उसकी कृपा बस बरसने को है , वो जो सब जानता है , उसके सामने सारा अहं त्याग कर झुक जाना ही , विषाद को भी योग बना देता है । अपनी व्यथा कहने के लिए किसे चुने , जब सब और से निरुत्तर हो जाए तो किसे पुकारे , ये गज ने किया , यही अहल्या ने , द्रोपदी ने और अर्जुन ने भी वही किया और परमात्मा जो सखा और राजा बना लीला कर रहा था प्रकट हो गया । - जय श्री कृष्ण !
श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद : अर्जुन विषाद योग (श्रीमद्भगवद्गीता प्रथम अध्याय )
http://whoistarun.blogspot.in/2014/05/blog-post_29.html
आपसे सविनय निवेदन , पढ़े , पढ़ाये और आगे प्रयास के लिए आशीर्वाद भी दे ।
जय श्री कृष्ण !