फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Monday, April 18, 2011
Sunday, April 17, 2011
क्रान्ति जब होगी
तुम
टीवी पर
ख़बरों में
खुद को पाओगे
खून से सना
नंगी होंगी
भूख
हवस
और
उसके बीच
बेबस
तुम
क्या तब भी
सोचोगे
इधर जाऊ
या
उधर ?
चुन लेना
अपना पक्ष
ताकत
और
खुले शब्दों में
वरना
मारे जाओगे
अप्रत्यक्ष चयन की
मृग मरीचिका में
आज कौन
अपने घर पर
कमा
खा
रहा है
फिर कौन
कहा से
इतनी संख्या में
मतदान को
आ रहा है ?
एक तो
संविधान सुन्न है
उसपर
चुनाव प्रक्रिया पर
आस्था का
संकट
गहरा रहा है |
रक्त रंजीत
क्रान्ति का
अध्याय
लिखा जा रहा है
मंचन का
मंथन का
मुहूर्त
निकट आ रहा है |
कसम खाओ
तब तक
बटन नहीं दबाओगे
जब तक
"किसी को वोट नहीं "
और
"मेरा वोट वापस दो"
का अधिकार
नहीं पाओगे |
Saturday, April 16, 2011
आत्ममुग्ध राष्ट्र में संविधान की ताकत
इस संविधान को
सैकड़ो बार
आसानी से
बदला गया है
इसके
अनुच्छेदों में
छेद कर
घर बना चुके है
चूहें
कंडीकाएं अब
बस
काडी भर करती है
और
गुदगुदाती है
अपराधी सरपरस्तों को
सभी खंड
उपखंड
खंड खंड हो
खँडहर बना चुके है
अपने ही
भार में दबी
हर इबारत को
हर बंध
उपबंध
ढीला है
समर्थों के लिए
जिससे केवल
फंदा बनाया जा सकता है
मजबूरों के लिए
वंचितों के लिए
इसका महँगा जिल्द
मुह चिढाता है
फटेहालों को
सही भी है
इस मुल्क में
इस एक किताब
और
उस एक झंडे की
हिफाजत में
कितने क़ानून है
जो
बालाओं के
चीरहरण पर
खामोश
पन्ने पलटता है
इसी किताब के
जिनमे
लिखे है
पैतरे
लाज लूट कर
इज्जत पाने के
झोपड़े डूबा कर
महल बनाने के
करोड़ो चीथड़ों को
रुलाता
लहरा रहा है
शान से तिरंगा
ऐ आत्ममुग्ध राष्ट्र !
सचमुच
तेरी शान पर
रश्क होता है |
Thursday, April 14, 2011
"मनमोहन" तू कोई इत्तेफाक लगता है रे
इत्तेफाक नहीं लगते एक मुझे उसके आंसू और बेबसी |
उसका दर्द , मुफलिसी बस तुम्हे इत्तेफाक लगता है ||
तमाम दुश्वारियों का तुझसे नाता बस इत्तेफाक लगता है |
मौका ऐ वारदात , क़त्ल, और तेरा होना इत्तेफाक लगता है ||
तू बेगुनाह "मन" उनके साथ तेरा होना अजब इत्तेफाक लगता है |
पैरवी , अगुवाई , सब जगह तेरा होना भी अब इत्तेफाक लगता है ||
इस मुल्क का होना जैसे नागवार उनको, एक इत्तेफाक लगता है |
हर आफत की पैदाइश और एक "जनपथ" फिर इत्तेफाक लगता है ||
हर इत्तेफाक से इत्तेफाक खूब ,क्या ये भी बस इत्तेफाक लगता है |
तेरा होना ना होना भी "मन", सब इत्तेफाक ही इत्तेफाक लगता है ||
"आपातकाल", "बोफोर्स", "घोटाला युग" इत्तेफकों का सिलसिला है |
मुझे तो सब बेसबब ही बस सिलसिला - ऐ- इत्तेफाक लगता है ||
मुझे तो सब बेसबब ही बस सिलसिला - ऐ- इत्तेफाक लगता है ||
Tuesday, April 12, 2011
राष्ट्र देवो भव:
ये ध्वज
ये भूमि
सब अपने
इस राष्ट्र देव में
समाहित है
जाती से
वर्णों से
ऊपर
कहीं
सब धर्मों को
समेटे
एक आँगन में
धूप छाव सा
शहर गाँव सा
राष्ट्र देव
लेता है
केवल भाव
अर्पण करो
वही से
जहां
जब
जैसे
तुम हो |
राष्ट्र है |
एक है |
सबल भी है |
बस
आस्था भर
पवित्रता चाहिए
देखो ..
वो राष्ट्र देव
जगता है |
जगाता है |
जंतर मंतर पर
कोई संत
एकता का
सूत कातता है
अनुशासन का
चरखा चलाता है
स्वाभिमान से जीना
सिखाता है |
Saturday, April 9, 2011
अब मौन मत धर लेना भारत !
Thursday, April 7, 2011
भागो अन्ना आता है !
भूखे पेट
सोये देश की
खोखली
बंजर
जमीन के नीचे
चूहों ने
बिल बनाये थे
कुछ तो
यही पैदा हुवे
कुछ
बाहर से
आये थे |
खाकर
दाना पानी
अब
बीज पर
नजर थी |
इसकी
अन्ना को
फिकर थी |
वो जाग रहा था
जगा रहा था
टूटा चरखा
चला रहा था
जो
दरअसल
गांधी के
रथ का पहिया था |
जिसमे
सुराज की
धुन बाकी थी
जिसने
अपनी धोती
फाड़ कर
अबला भारत की
इज्जत ढ|की थी |
उस सूत में
अभी भी
जान बाकी थी |
वो उठा
उसने शंख बजाया था
मरी भारतीयता को
संजीवनी मन्त्र
सुंघाया था |
आज वो ही
अन्ना
जंतर मंतर पर
अड़ा है
जाने किस दम पर
खडा है |
मगर
चूहों की सरकार में
मची खलबली है
दिल्ली में
अजब सी
चलाचली है
जिसे देखो
मैदान छोड़
भाग जाना चाहता है
एक ही शोर है
भागो चूहों भागो !
कि अन्ना आता है !
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