Monday, April 18, 2011

भारतीयता मौलिक ही रहेगी




या यू कहे 
कि
मौलिकता ही 
भारतीयता है 
तो 
ज्यादा सही होगा 
ज्यादा करीब होगा 

उस सच के 
जो 
छुप गया है 
दब गया है 
बाजारू सोच 
और 
हरदम बिकाऊ लोच
के पीछे 
बहुत नीचे कही 

जहा 
सोच 
और 
सिद्धांत 
सजावट भर है

नैतिकता 
सापेक्ष है 

धर्म 
चर है 

और 
आत्मा 
भौतिक वस्तु सी 
बोली पर चढ़ी है 

जिसे 
तुम प्रोफाइल कहते हो | 

Sunday, April 17, 2011

क्रान्ति जब होगी





तुम
टीवी पर 
ख़बरों में 
खुद को पाओगे 
खून से सना 

नंगी होंगी 
भूख 
हवस 
और 
उसके बीच 
बेबस 
तुम 

क्या तब भी 
सोचोगे 
इधर जाऊ 
या 
उधर ?

चुन लेना 
अपना पक्ष 
ताकत 
और 
खुले शब्दों में 
वरना 
मारे जाओगे 
अप्रत्यक्ष चयन की 
मृग मरीचिका में 

आज कौन 
अपने घर पर 
कमा 
खा 
रहा है 
फिर कौन 
कहा से 
इतनी संख्या में 
मतदान को 
आ रहा है ?
एक तो 
संविधान सुन्न है 
उसपर 
चुनाव प्रक्रिया पर 
आस्था का 
संकट 
गहरा रहा है |

रक्त रंजीत 
क्रान्ति का 
अध्याय 
लिखा जा रहा है 
मंचन का 
मंथन का 
मुहूर्त 
निकट आ रहा है |

कसम खाओ 
तब तक 
बटन नहीं दबाओगे 
जब तक 
"किसी को वोट नहीं "
और 
"मेरा वोट वापस दो"
का अधिकार 
नहीं पाओगे |

Saturday, April 16, 2011

आत्ममुग्ध राष्ट्र में संविधान की ताकत




इस संविधान को 
सैकड़ो बार 
आसानी से 
बदला गया है 
इसके 
अनुच्छेदों में 
छेद कर 
घर बना चुके है 
चूहें 
कंडीकाएं अब 
बस 
काडी भर करती है  
और 
गुदगुदाती है 
अपराधी सरपरस्तों को 
सभी खंड 
उपखंड 
खंड खंड हो 
खँडहर बना चुके है 
अपने ही 
भार में दबी 
हर इबारत को 
हर बंध 
उपबंध 
ढीला है 
समर्थों के लिए 
जिससे केवल 
फंदा बनाया जा सकता है 
मजबूरों के लिए 
वंचितों के लिए 
इसका महँगा जिल्द 
मुह चिढाता है 
फटेहालों को 
सही भी है 
इस मुल्क में 
इस एक किताब 
और 
उस एक झंडे की 
हिफाजत में 
कितने क़ानून है 
जो 
बालाओं के 
चीरहरण पर 
खामोश 
पन्ने पलटता है 
इसी किताब के 
जिनमे 
लिखे है 
पैतरे 
लाज लूट कर 
इज्जत पाने के 
झोपड़े डूबा कर 
महल बनाने के 
करोड़ो चीथड़ों को 
रुलाता 
लहरा रहा है 
शान से तिरंगा 
ऐ आत्ममुग्ध राष्ट्र !
सचमुच 
तेरी शान पर
रश्क होता है | 

Thursday, April 14, 2011

"मनमोहन" तू कोई इत्तेफाक लगता है रे



इत्तेफाक नहीं लगते एक मुझे उसके आंसू और बेबसी |
उसका दर्द , मुफलिसी  बस तुम्हे इत्तेफाक लगता है ||
तमाम दुश्वारियों का तुझसे नाता बस इत्तेफाक लगता है |
मौका ऐ वारदात , क़त्ल, और तेरा होना इत्तेफाक लगता है ||
तू बेगुनाह "मन"  उनके साथ तेरा होना अजब इत्तेफाक लगता है |
पैरवी , अगुवाई , सब जगह तेरा होना भी अब इत्तेफाक लगता है ||
इस मुल्क का होना जैसे नागवार उनको, एक इत्तेफाक लगता है |
हर आफत की पैदाइश और एक "जनपथ" फिर इत्तेफाक लगता है ||
हर इत्तेफाक से इत्तेफाक खूब ,क्या ये भी बस इत्तेफाक लगता है |
तेरा होना ना होना भी "मन", सब इत्तेफाक ही इत्तेफाक लगता है ||
"आपातकाल", "बोफोर्स", "घोटाला युग" इत्तेफकों का सिलसिला है |
मुझे तो सब बेसबब ही बस सिलसिला - ऐ- इत्तेफाक लगता है  ||


Tuesday, April 12, 2011

राष्ट्र देवो भव:




ये ध्वज 
ये भूमि 
सब अपने 
इस राष्ट्र देव में 
समाहित है 
जाती से 
वर्णों से 
ऊपर 
कहीं 
सब धर्मों को 
समेटे 
एक आँगन में 
धूप छाव सा 
शहर गाँव सा 
राष्ट्र देव 
लेता है 
केवल भाव 
अर्पण करो 
वही से 
जहां 
जब 
जैसे 
तुम हो |
राष्ट्र है |
एक है |
सबल भी है |
बस
आस्था भर 
पवित्रता चाहिए 
देखो ..
वो राष्ट्र देव 
जगता है |
जगाता है |
जंतर मंतर पर 
कोई संत 
एकता का 
सूत कातता है 
अनुशासन का 
चरखा चलाता है 
स्वाभिमान से जीना 
सिखाता है |

Saturday, April 9, 2011

अब मौन मत धर लेना भारत !



जीते नहीं
अभी बस
जागे है ,
मरे नहीं है
सब मच्छर
बस भागे है |
क्रांति
कोई खेल नहीं
कि
हसते हसते
वक्त कटे
ये मौन
बतलायेगा
अब
कौन कटे ,
कौन हटे
कौन बटे
रहे अंत तक
कौन डटे |

Thursday, April 7, 2011

भागो अन्ना आता है !




भूखे पेट
सोये देश की
खोखली
बंजर
जमीन के नीचे
चूहों ने
बिल बनाये थे
कुछ तो
यही पैदा हुवे
कुछ
बाहर से
आये थे |
खाकर
दाना पानी
अब
बीज पर
नजर थी |
इसकी
अन्ना को
फिकर थी |
वो जाग रहा था
जगा रहा था
टूटा चरखा
चला रहा था
जो
दरअसल
गांधी के
रथ का पहिया था |
जिसमे
सुराज की
धुन बाकी थी
जिसने
अपनी धोती
फाड़ कर
अबला भारत की
इज्जत ढ|की थी |
उस सूत में
अभी भी
जान बाकी थी |
वो उठा
उसने शंख बजाया था
मरी भारतीयता को
संजीवनी मन्त्र
सुंघाया था |
आज वो ही
अन्ना
जंतर मंतर पर
अड़ा है
जाने किस दम पर
खडा है |
मगर
चूहों की सरकार में
मची खलबली है
दिल्ली में
अजब सी
चलाचली है
जिसे देखो
मैदान छोड़
भाग जाना चाहता है
एक ही शोर है
भागो चूहों भागो !
कि अन्ना आता है !