प्रयास रत हूँ मैं
जूझ रहा हूँ
स्वयं से
अपनो से
परायों से
व्यवस्था से
कि
लिख सकू
चिर प्रतीक्षित
ईमानदार रचना
जिसमे
उघाड़ दूँ
स्वयं और समाज को
मर्यादित ही
अनावृत्त कर दू
मानवीय संवेदना के
आदि स्रोत
और
उसके प्रयोजन को
निहितार्थ को
परिणिति को
सरल
सहज शब्दों
और
शुद्ध
आडम्बरहीन
रचना द्वारा
गाई भले ना जा सके
पचाई जा सके
ऐसी
सर्वकालिक
मौलिक रचना का
आपकी तरह
मुझे भी
इन्तेजार है ...
रोज
खबरों पर
मिडिया में
खुद को
देखते
पढ़ते
सुनते
समझ
बौराने लगी है
एक मेरे सिवा
सब को
फ़िक्र है
मेरी नहीं
मेरे मजहब
और
उस पर चिपके
पैबंद की
मैं भी
"जिहाद "
चाहता हूँ
जहालत
गरीबी से
निजात चाहता हूँ
मगर
लगता है
आसान है
ऐसे ही
खबरी मौत
रोज मरना
सचमुच
बहुत
कठिन है
जीना
जी कर
मुसलमा होना ...
इस्लाम
एक पिंजरा है
जो
उड़ना चाहता है
और
बंद भी रहना
भीतर से !!!
बहुत बैचैन हूँ बेसब्र हूँ
कुछ कह ना बैठूं
कर ना जाऊं
ऐसा
कि
पछताना पड़े
मुझे
और
मेरे अपनो को
बहुत अरमां
संजोये है
जिंदगी
तेरे साथ
तू रहे
आबाद रहे
तो
तेरे साथ
बहुत
दूर का
वादा रहा... |
समय
ऊंट सा
चला जा रहा है
संवेदना रहित
निर्जन
अमानुष
शुष्क
विस्तार में
रस की
चंद बूंदों को
जहा
फंदे बनाकर
रिझाया जा रहा है ...
मृग की तृष्णा
भ्रम नहीं है
पर
क्षितिज पर
बहती
उम्मीदों की नदी
झूठ की लहरे
सब
प्रपंच
किसी और ही
आयाम में
रचे हैं ...
इन बिच्छुओं को
प्यास नहीं लगती
फिर भी
तुम्हारा रक्त
पीने को
रच रहे है
नखलिस्तान
पर
नखलिस्तान
...
और
तुम
कहाँ पहुचोगे
गर पार कर भी लो
ये
कलियुगी
हम चले जा रहे है
अंधी सुरंग में
हाथ थामे
लड़ते
गिरते
कुचलते
अपनो को
परायों को
जिनके पीछे
वो
देख नहीं सकते
अपनी नाक
और
निजी स्वार्थ से आगे
वो
चाँद पर
बस्तियों का
बाजार बुनते है
ताश में
जोकर से हम
बस
एक तय
राजा चुनते है
संधियाँ
उघडी पड़ी है
नयी संधियों के तहत
हम
उनमे
पुरानी संधियों के
सुराग ढूँढते है
जो
तयशुदा ढंग से
छुपा दिए गए है
और
निकाल लिए जायेंगे
उसके द्वारा
चौथा स्तम्भ
अब
श्वान बन चुका है
अभ्यस्त
प्रशिक्षित
अनुभवी भी
वो
हड्डी फैंकते है
और ये
दौड़ पड़ता है
ज़रा ठहरों
क्या उसके पीछे
जाना जरुरी है?
अगर है
तो
संग विवेक भी
धर लेना
क्योंकि
आगे
रास्ता वही दिखाएगा
ये श्वान तो
तुम्हे बस
अंधी गलियों में
छोड़ आयेगा |
उन
अंधी गलियों में
बिछी है
बारूदी सुरंगे
जो
अफवाह भर से
फट पड़ेंगी
तुम्हे फर्क पडेगा
क्योंकि
तुम सोचते हो
तुम्हारा
एक घर भी तो है
ना उनको
ना उनके महलों को
नीव की
आदत ही रही कभी
ना ही जरुरत थी|
संधिया
अब
दरकने लगी है
उनसे
मवाद
रिसती है
दुर्गन्ध
आती है
तुम सम्भलों
श्वान को तो
बस
वही
भाती है |
या यू कहे
कि
मौलिकता ही
भारतीयता है
तो
ज्यादा सही होगा
ज्यादा करीब होगा
उस सच के
जो
छुप गया है
दब गया है
बाजारू सोच
और
हरदम बिकाऊ लोच
के पीछे
बहुत नीचे कही
जहा
सोच
और
सिद्धांत
सजावट भर है
नैतिकता
सापेक्ष है
धर्म
चर है
और
आत्मा
भौतिक वस्तु सी
बोली पर चढ़ी है
जिसे
तुम प्रोफाइल कहते हो |
तुम
टीवी पर
ख़बरों में
खुद को पाओगे
खून से सना
नंगी होंगी
भूख
हवस
और
उसके बीच
बेबस
तुम
क्या तब भी
सोचोगे
इधर जाऊ
या
उधर ?
चुन लेना
अपना पक्ष
ताकत
और
खुले शब्दों में
वरना
मारे जाओगे
अप्रत्यक्ष चयन की
मृग मरीचिका में
आज कौन
अपने घर पर
कमा
खा
रहा है
फिर कौन
कहा से
इतनी संख्या में
मतदान को
आ रहा है ?
एक तो
संविधान सुन्न है
उसपर
चुनाव प्रक्रिया पर
आस्था का
संकट
गहरा रहा है |
रक्त रंजीत
क्रान्ति का
अध्याय
लिखा जा रहा है
मंचन का
मंथन का
मुहूर्त
निकट आ रहा है |
कसम खाओ
तब तक
बटन नहीं दबाओगे
जब तक
"किसी को वोट नहीं "
और
"मेरा वोट वापस दो"
का अधिकार
नहीं पाओगे |