Wednesday, May 18, 2011

अथ भ्रष्टासुर वध कथा भाग १

  

सोये थे जनदेव 
भोगनिन्द्रा में
तन्मय हो 
लिप्त थे 
नित्य क्रीडा में 
तभी 
भ्रष्टासुर आ धमाका 
ठीक सिर पर 
प्रभु जागे नहीं
उनींदे ही 
पूछ बैठे 
कौन वत्स भ्रष्टासुर ...
तुम तो हो गये हो
दुराचारी 
और 
दुर्घर्ष भी 
समाचार सब 
नारद जी 
फैला रहे है 
तमाम माध्यमो पर 
नित ही तुम 
तोड़ते हो 
स्वयं ही के कीर्तिमान 
याद नहीं पड़ता 
कैसे !
कब !!
उद्भव हूवा 
सो कथा तुम ही कहो 
मेरी ओर से नि:शंक रहो ...
प्रभो , बोला भ्रष्टासुर 
परिचित 
विनीत स्वर में 
आपकी ही 
उपेक्षाओं से जन्मा हूँ 
अवसरवादिता 
और 
सुविधावृत्ति ने 
पालन किया 
मां  लक्ष्मी की 
रही कृपा बरस 
आपसे क्या छिपा भगवन 
बढ़ रहा हूँ 
कलिकाल की 
अनुकूलता में 
पल पल हर क्षण 
क्षुधा से 
आकुल हो 
इस द्वार आया हूँ 
आप ही शेष रहे  
शेष सबको तो खा आया हूँ !
अब कुछ 
तंद्रा में विध्न पडा 
तो विचलित हो 
बोले जनदेव 
मुर्ख 
जानता नहीं 
मेरी ताकत 
मेरी सहमति 
और मौन से ही 
रहते है 
भ्रष्ट सारे सत्तासीन 
दीर्घायु अभामंडित सदा 
मेरे अन्दोलनास्त्र की 
एक फूंक से 
ध्वस्त कर सकता हूँ 
तुझ जैसे सहस्रों को 
तेरे लिए तो 
मेरा शांतिपूर्ण प्रदर्शन ही 
पर्याप्त है 
अट्हास से भ्रष्टासुर  की 
दहल उठा था नभमंडल तब 
जनदेव, भले आप पूज्य हो 
और समर्थ भी 
भेद ना सकेंगे 
मेरे संगठित 
बेशर्मपुर गढ़ को 
और 
मेरे लिए तो 
आप ही ने  दिया था 
संविधान का कवच 
भूल गए प्रभु !!!
ओह , बड़ी भूल हुई 
जनदेव अब भी 
मूर्तिवत सोच रहे है 
क्या पता 
समाधि में है 
या भ्रष्टासुर  ने 
बना दिया 
उन्हें भी जड़ ...

कथा अभी शेष है , कृपया प्रतीक्षा करे , जय जय जनदेव !
आगे ...

Sunday, May 15, 2011

उसमे वो आग अभी बाकी है



खबरे पढ़ कर 
जी करता है 
अखबार जला दू 
ख़ुदकुशी कर लू 
गोली ही मार दू 
समाज के नासूरों को 
फिर 
कुछ सोच कर 
रोता हूँ
हँसता हूँ 
मन बदल लेता हूँ 
दर्शन की आड़ ले लेता हूँ 
खुद को 
बहलाता हूँ 
औरों को 
समझाता हूँ 
बस 
बहस नहीं कर पाता 
किसी युवा से 
क्योंकि 
अगर उसने ठान ली 
तो मैं जानता हूँ 
सब बदल डालेगा 
होम हो जाएगा 
बदलाव के हवन में 
मैं जानता हूँ 
क्योंकि 
मैं भी 
कभी 
ऐसा ही हुवा करता था  
टटोलता हूँ 
भीतर 
कही वो आग 
शायद अब भी बाकी हो ...
-- 

Thursday, May 12, 2011

अदद एक ईमानदार रचना के लिए



प्रयास रत हूँ मैं 
जूझ रहा हूँ 
स्वयं से 
अपनो से 
परायों से 
व्यवस्था से 
कि 
लिख सकू 
चिर प्रतीक्षित 
ईमानदार रचना 
जिसमे 
उघाड़ दूँ 
स्वयं और समाज को 
मर्यादित ही 
अनावृत्त कर दू 
मानवीय संवेदना के 
आदि स्रोत 
और 
उसके प्रयोजन को 
निहितार्थ को  
परिणिति को 
सरल 
सहज शब्दों 
और 
शुद्ध 
आडम्बरहीन
रचना द्वारा 
गाई भले ना जा सके 
पचाई जा सके 
ऐसी 
सर्वकालिक 
मौलिक रचना का 
आपकी तरह 
मुझे भी 
इन्तेजार है  ...

Thursday, May 5, 2011

कठिन है मुसलमां होना




रोज
खबरों पर 
मिडिया में 
खुद को
देखते 
पढ़ते 
सुनते 
समझ 
बौराने लगी है  
एक मेरे सिवा 
सब को 
फ़िक्र है 
मेरी नहीं 
मेरे मजहब 
और 
उस पर चिपके 
पैबंद की 
मैं भी 
"जिहाद "
चाहता हूँ 
जहालत 
गरीबी से
निजात चाहता हूँ 
मगर 
लगता है 
आसान है 
ऐसे ही 
खबरी मौत 
रोज मरना 
सचमुच 
बहुत 
कठिन है 
जीना 
जी कर 
मुसलमा होना ...

इस्लाम 
एक पिंजरा है 
जो 
उड़ना चाहता है 
और 
बंद भी रहना 
भीतर से !!!

Tuesday, May 3, 2011

वादा रहा जिंदगी !



बहुत बैचैन हूँ 
बेसब्र हूँ 
कुछ कह ना बैठूं 
कर ना जाऊं 
ऐसा 
कि 
पछताना पड़े 
मुझे 
और 
मेरे अपनो को 
बहुत अरमां 
संजोये है 
जिंदगी 
तेरे साथ 
तू रहे 
आबाद रहे 
तो 
तेरे साथ 
बहुत 
दूर का 
वादा रहा... |

Wednesday, April 27, 2011

करवट समय की



समय 
ऊंट सा 
चला जा रहा है 
संवेदना रहित 
निर्जन 
अमानुष 
शुष्क 
विस्तार में 
रस की 
चंद बूंदों को 
जहा 
फंदे बनाकर 
रिझाया जा रहा है ...
मृग की तृष्णा 
भ्रम नहीं है 
पर 
क्षितिज पर 
बहती 
उम्मीदों की नदी 
झूठ की लहरे
सब 
प्रपंच 
किसी और ही 
आयाम में 
रचे हैं ...
इन बिच्छुओं को 
प्यास नहीं लगती 
फिर भी 
तुम्हारा रक्त 
पीने को 
रच रहे है 
नखलिस्तान 
पर 
नखलिस्तान 
...
और 
तुम 
कहाँ पहुचोगे 
गर पार कर भी लो 
ये 
कलियुगी 
रेगिस्तान   ...


Tuesday, April 19, 2011

संधि पर संधि है "संधियुग"




हम चले जा रहे है 
अंधी सुरंग में 
हाथ थामे 
लड़ते 
गिरते 
कुचलते 
अपनो को 
परायों को 
जिनके पीछे

वो 
देख नहीं सकते 
अपनी नाक 
और 
निजी स्वार्थ से आगे
 
वो 
चाँद पर 
बस्तियों का 
बाजार बुनते है 

ताश में 
जोकर से हम 
बस 
एक तय 
राजा चुनते है 

संधियाँ 
उघडी पड़ी है 
नयी संधियों के तहत 
हम 
उनमे 
पुरानी संधियों के 
सुराग ढूँढते है  
  
जो 
तयशुदा ढंग से 
छुपा दिए गए है 
और 
निकाल लिए जायेंगे 
उसके द्वारा 

चौथा स्तम्भ 
अब  
श्वान बन चुका है 
अभ्यस्त
प्रशिक्षित 
अनुभवी भी 

वो 
हड्डी फैंकते है 
और ये 
दौड़ पड़ता है 

ज़रा ठहरों 
क्या उसके पीछे 
जाना जरुरी है?
 
अगर है 
तो 
संग विवेक भी 
धर लेना 
क्योंकि 
आगे 
रास्ता वही दिखाएगा 
ये श्वान तो 
तुम्हे बस 
अंधी गलियों में 
छोड़ आयेगा |
उन 
अंधी गलियों में 
बिछी है 
बारूदी सुरंगे 
जो 
अफवाह भर से 
फट पड़ेंगी 

तुम्हे फर्क पडेगा 
क्योंकि 
तुम सोचते हो 
तुम्हारा
एक घर भी तो है
 
ना उनको 
ना उनके महलों को 
नीव की 
आदत ही रही कभी 
ना ही जरुरत थी|

संधिया 
अब 
दरकने लगी है 
उनसे 
मवाद 
रिसती है 
दुर्गन्ध 
आती है 
तुम सम्भलों 
श्वान को तो 
बस 
वही 
भाती है |