ये वक़्त भी
गुजर जाएगा
फिर नया कोई
दौर आयेगा |
तब लिखूंगा
कविता
देशकाल
और
समाज पर
मिल जाए
पुरस्कार ,
कुछ राशि ,
रोयल्टी ...वगैरह |
बिटिया का ब्याह
बेटे का ठौर
क्या
कवि की
कोई जिम्मेदारी नहीं ?
साहब !
आप तो
समझ ही नहीं सके
के क्यों
लिखते है
कवि छद्म नाम से ?
क्यों ?
कोई कवि
आगे नहीं चलता
किसी
जनांदोलन में ?
क्यों
प्रसंस्तिया ..
शोक / विरह गीत
और
श्रृंगार रत
रहता है सदा कवि ?
क्यों
उसके अश्रुओं से
नहीं धुलती
उसकी अपनी स्याही
या
क्यों नहीं जल उठत़ा
कागज़
उसकी ज्वलंत लेखनी से ?
क्यों
आखिर क्यों ?
सरस्वती-पुत्र कहलाता
बैठा है
हारा
नाकारा
निस्तेज
अपनी ही माया में
मस्त
सहता क्लेश ,
नियोजित कष्ट !!!
फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Thursday, July 1, 2010
Monday, June 28, 2010
थूंक के छींटे ..अगली पीढ़ी तक !
उसने जब
सड़क पर थूका
बेलिहाज
बेअदब
शायद
बेसबब नहीं था |
रोज
सैकड़ो हजारों
की ये हरकत
जिसमे
कुछ अजब नहीं था ,
खटकी थी
अटकी थी
चंद निगाहों में |
जिन्हें
जीवन
गिनती सा सरल
और पहाड़े जितना
कठिन लगा होगा |
..अब तक |
"मास्साब" वो आप थे ?
नहीं ! नहीं !
कोई हमशक्ल रहा होगा |
सड़क पर थूका
बेलिहाज
बेअदब
शायद
बेसबब नहीं था |
रोज
सैकड़ो हजारों
की ये हरकत
जिसमे
कुछ अजब नहीं था ,
खटकी थी
अटकी थी
चंद निगाहों में |
जिन्हें
जीवन
गिनती सा सरल
और पहाड़े जितना
कठिन लगा होगा |
..अब तक |
"मास्साब" वो आप थे ?
नहीं ! नहीं !
कोई हमशक्ल रहा होगा |
Sunday, June 27, 2010
क्रान्ति !!! , कब ????
क्रान्ति के पूर्व
होती है छटपटाहट
भीतर
कही कोने में
नक्कारखाने में
तूती की तरह
जैसे
रात के अँधेरे में
करते हो शोर
ढेर सारे झींगुर
मगर ...
क्रान्ति नहीं होती
लोग जागते है
या
जब अलसभोर हो
या
जब सिंह दहाड़ते है
निकट ,
निपट,
निर्भीक !
होती है छटपटाहट
भीतर
कही कोने में
नक्कारखाने में
तूती की तरह
जैसे
रात के अँधेरे में
करते हो शोर
ढेर सारे झींगुर
मगर ...
क्रान्ति नहीं होती
लोग जागते है
या
जब अलसभोर हो
या
जब सिंह दहाड़ते है
निकट ,
निपट,
निर्भीक !
Monday, June 21, 2010
मेरी अपनी एक डगर है
कोई साथ चले ना चले
मुझे भीड़ से क्या लेना |
मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
भीड़ मिटा देती स्व को |
भीड़ बड़ा देती भव को |
मै लिए सहज समभाव |
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
भीड़ फिरा देती है सोच |
जगा कर उन्मादित जोश |
रुग्न ज्वर सी वेदनामय ,
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
कसमसाता विवेक मुट्ठियों में
लहराता ज्यों सागर पर फेन |
जो अबूझ पहेली , हो स्वयं प्रश्न
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
मुझे भीड़ से क्या लेना |
मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
भीड़ मिटा देती स्व को |
भीड़ बड़ा देती भव को |
मै लिए सहज समभाव |
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
भीड़ फिरा देती है सोच |
जगा कर उन्मादित जोश |
रुग्न ज्वर सी वेदनामय ,
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
कसमसाता विवेक मुट्ठियों में
लहराता ज्यों सागर पर फेन |
जो अबूझ पहेली , हो स्वयं प्रश्न
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||
Friday, June 18, 2010
याद है मुझे कब पिछली बार हँसी थी वो
याद है मुझे कब पिछली बार हँसी थी वो ,
मेरी ही किसी बात पर बहुत हँसी थी वो |
जाने तब क्या सोच कर बहुत हँसी थी वो ...
खैर जो भी हो मगर क्या खूब हँसी थी वो |
हंसते हुवे पल्लू से ढँक लिया था चेहरा
आँचल के पार बिखर गयी ऐसी हंसी थी वो |
मैं भी हंसा था साथ था हाथों में उसका हाँथ
लेकर हाँथ मेरे साथ सारी रात हँसीं थी वो |
नहीं भूलती उसकी खनक आज भी सुनता हूँ
किसी घुंघरूं किसी पायल कि सी हँसी थी वो |
रूप और भी उजास से रंगों से भर गया था उसका
कोई भूलना भी चाहे ना भूले ऐसी हँसी थी वो |
एक अहसान है मुझपर उसका चुकाए नहीं चुकता
दिल उदास था उसका थी परेशान फिर भी हँसी थी वो |
उसकी हँसीं पर वरना क्यों नज्म लिखता यु ही तरुण
सारे अपने गम भुला के सिर्फ मेरे लिए हँसी थी वो |
मेरी ही किसी बात पर बहुत हँसी थी वो |
जाने तब क्या सोच कर बहुत हँसी थी वो ...
खैर जो भी हो मगर क्या खूब हँसी थी वो |
हंसते हुवे पल्लू से ढँक लिया था चेहरा
आँचल के पार बिखर गयी ऐसी हंसी थी वो |
मैं भी हंसा था साथ था हाथों में उसका हाँथ
लेकर हाँथ मेरे साथ सारी रात हँसीं थी वो |
नहीं भूलती उसकी खनक आज भी सुनता हूँ
किसी घुंघरूं किसी पायल कि सी हँसी थी वो |
रूप और भी उजास से रंगों से भर गया था उसका
कोई भूलना भी चाहे ना भूले ऐसी हँसी थी वो |
एक अहसान है मुझपर उसका चुकाए नहीं चुकता
दिल उदास था उसका थी परेशान फिर भी हँसी थी वो |
उसकी हँसीं पर वरना क्यों नज्म लिखता यु ही तरुण
सारे अपने गम भुला के सिर्फ मेरे लिए हँसी थी वो |
गाँधी
गाँधी ,
एक शब्द है ,
जिसमे आत्मा भी है |
गांधी ...
एक विचार
भर नहीं है |
एक समस्या बन गया है !
उनके लिए ,
जिन्हों ने ,
सहज ही साध रक्खे है '
सत्ता के सारे सूत्र |
उनकी पीढिया ,
पहन रही है ,
गाँधी की उतरन |
बेशर्म होकर ,
जिन्होंने ,
गरीबो की झोपडियो में ,
झुग्गियों में ,
किलेबंदी
कर रक्खी है |
उस सोच के खिलाफ ,
जिसका नाम ,
गाँधी है |
एक शब्द है ,
जिसमे आत्मा भी है |
गांधी ...
एक विचार
भर नहीं है |
एक समस्या बन गया है !
उनके लिए ,
जिन्हों ने ,
सहज ही साध रक्खे है '
सत्ता के सारे सूत्र |
उनकी पीढिया ,
पहन रही है ,
गाँधी की उतरन |
बेशर्म होकर ,
जिन्होंने ,
गरीबो की झोपडियो में ,
झुग्गियों में ,
किलेबंदी
कर रक्खी है |
उस सोच के खिलाफ ,
जिसका नाम ,
गाँधी है |
अकल बड़ी कि भैस बड़ी ?
अकल बड़ी कि भैस बड़ी ?
इसी सोच में अकल पड़ी
भैस खडी पगुराएगी
अकल कि चल ना पाएगी
सींग उठाए भैस खडी
पूंछ उठाए भैंस खडी
गोबर देगी या दूध अड़ी
पड़ी चौराहे अकल सड़ी
भैंस बिक गयी खडी खडी
दूध पीकर जो अकल बड़ी
भैंस से जाकर जुडी कड़ी
कैसे अहसान चुकाएगी
भैंस समझ ना पायेगी
अकल बीन बजाएगी
भैंस खडी मुस्काएगी
जो भैंस पानी में उतर गयी
रह जायेगी अकल खडी
अकल के पीछे भैंस पड़ी
जमीन जाकर अकल गडी
चारा बन उग जायेगी
भैंस उसे चर जायेगी
अकल लग रही हरी हरी
भैंस देखकर डरी डरी
भैंस देखकर अकल झड़ी
भैंस बड़ी कि अकल बड़ी ???
इसी सोच में अकल पड़ी
भैस खडी पगुराएगी
अकल कि चल ना पाएगी
सींग उठाए भैस खडी
पूंछ उठाए भैंस खडी
गोबर देगी या दूध अड़ी
पड़ी चौराहे अकल सड़ी
भैंस बिक गयी खडी खडी
दूध पीकर जो अकल बड़ी
भैंस से जाकर जुडी कड़ी
कैसे अहसान चुकाएगी
भैंस समझ ना पायेगी
अकल बीन बजाएगी
भैंस खडी मुस्काएगी
जो भैंस पानी में उतर गयी
रह जायेगी अकल खडी
अकल के पीछे भैंस पड़ी
जमीन जाकर अकल गडी
चारा बन उग जायेगी
भैंस उसे चर जायेगी
अकल लग रही हरी हरी
भैंस देखकर डरी डरी
भैंस देखकर अकल झड़ी
भैंस बड़ी कि अकल बड़ी ???
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