फिर कोई लोभ का रावण , साधू सा वेश धर वोट मांगता है | शहीदों ने खिंची थी जो लक्ष्मण रेखा वो फिर लहू मांगती है || Tarun Kumar Thakur,Indore (M P) "मेरा यह मानना है कि, कवि अपनी कविता का प्रथम पाठक/श्रोता मात्र होता है |"
Tuesday, May 3, 2011
Wednesday, April 27, 2011
करवट समय की
समय
ऊंट सा
चला जा रहा है
संवेदना रहित
निर्जन
अमानुष
शुष्क
विस्तार में
रस की
चंद बूंदों को
जहा
फंदे बनाकर
रिझाया जा रहा है ...
मृग की तृष्णा
भ्रम नहीं है
पर
क्षितिज पर
बहती
उम्मीदों की नदी
झूठ की लहरे
सब
प्रपंच
किसी और ही
आयाम में
रचे हैं ...
इन बिच्छुओं को
प्यास नहीं लगती
फिर भी
तुम्हारा रक्त
पीने को
रच रहे है
नखलिस्तान
पर
नखलिस्तान
...
और
तुम
कहाँ पहुचोगे
गर पार कर भी लो
ये
कलियुगी
रेगिस्तान ...
Tuesday, April 19, 2011
संधि पर संधि है "संधियुग"
हम चले जा रहे है
अंधी सुरंग में
हाथ थामे
लड़ते
गिरते
कुचलते
अपनो को
परायों को
जिनके पीछे
वो
देख नहीं सकते
अपनी नाक
और
निजी स्वार्थ से आगे
वो
चाँद पर
बस्तियों का
बाजार बुनते है
ताश में
जोकर से हम
बस
एक तय
राजा चुनते है
संधियाँ
उघडी पड़ी है
नयी संधियों के तहत
हम
उनमे
पुरानी संधियों के
सुराग ढूँढते है
जो
तयशुदा ढंग से
छुपा दिए गए है
और
निकाल लिए जायेंगे
उसके द्वारा
चौथा स्तम्भ
अब
श्वान बन चुका है
अभ्यस्त
प्रशिक्षित
अनुभवी भी
वो
हड्डी फैंकते है
और ये
दौड़ पड़ता है
ज़रा ठहरों
क्या उसके पीछे
जाना जरुरी है?
अगर है
तो
संग विवेक भी
धर लेना
क्योंकि
आगे
रास्ता वही दिखाएगा
ये श्वान तो
तुम्हे बस
अंधी गलियों में
छोड़ आयेगा |
उन
अंधी गलियों में
बिछी है
बारूदी सुरंगे
जो
अफवाह भर से
फट पड़ेंगी
तुम्हे फर्क पडेगा
क्योंकि
तुम सोचते हो
तुम्हारा
एक घर भी तो है
ना उनको
ना उनके महलों को
नीव की
आदत ही रही कभी
ना ही जरुरत थी|
संधिया
अब
दरकने लगी है
उनसे
मवाद
रिसती है
दुर्गन्ध
आती है
तुम सम्भलों
श्वान को तो
बस
वही
भाती है |
Monday, April 18, 2011
Sunday, April 17, 2011
क्रान्ति जब होगी
तुम
टीवी पर
ख़बरों में
खुद को पाओगे
खून से सना
नंगी होंगी
भूख
हवस
और
उसके बीच
बेबस
तुम
क्या तब भी
सोचोगे
इधर जाऊ
या
उधर ?
चुन लेना
अपना पक्ष
ताकत
और
खुले शब्दों में
वरना
मारे जाओगे
अप्रत्यक्ष चयन की
मृग मरीचिका में
आज कौन
अपने घर पर
कमा
खा
रहा है
फिर कौन
कहा से
इतनी संख्या में
मतदान को
आ रहा है ?
एक तो
संविधान सुन्न है
उसपर
चुनाव प्रक्रिया पर
आस्था का
संकट
गहरा रहा है |
रक्त रंजीत
क्रान्ति का
अध्याय
लिखा जा रहा है
मंचन का
मंथन का
मुहूर्त
निकट आ रहा है |
कसम खाओ
तब तक
बटन नहीं दबाओगे
जब तक
"किसी को वोट नहीं "
और
"मेरा वोट वापस दो"
का अधिकार
नहीं पाओगे |
Saturday, April 16, 2011
आत्ममुग्ध राष्ट्र में संविधान की ताकत
इस संविधान को
सैकड़ो बार
आसानी से
बदला गया है
इसके
अनुच्छेदों में
छेद कर
घर बना चुके है
चूहें
कंडीकाएं अब
बस
काडी भर करती है
और
गुदगुदाती है
अपराधी सरपरस्तों को
सभी खंड
उपखंड
खंड खंड हो
खँडहर बना चुके है
अपने ही
भार में दबी
हर इबारत को
हर बंध
उपबंध
ढीला है
समर्थों के लिए
जिससे केवल
फंदा बनाया जा सकता है
मजबूरों के लिए
वंचितों के लिए
इसका महँगा जिल्द
मुह चिढाता है
फटेहालों को
सही भी है
इस मुल्क में
इस एक किताब
और
उस एक झंडे की
हिफाजत में
कितने क़ानून है
जो
बालाओं के
चीरहरण पर
खामोश
पन्ने पलटता है
इसी किताब के
जिनमे
लिखे है
पैतरे
लाज लूट कर
इज्जत पाने के
झोपड़े डूबा कर
महल बनाने के
करोड़ो चीथड़ों को
रुलाता
लहरा रहा है
शान से तिरंगा
ऐ आत्ममुग्ध राष्ट्र !
सचमुच
तेरी शान पर
रश्क होता है |
Thursday, April 14, 2011
"मनमोहन" तू कोई इत्तेफाक लगता है रे
इत्तेफाक नहीं लगते एक मुझे उसके आंसू और बेबसी |
उसका दर्द , मुफलिसी बस तुम्हे इत्तेफाक लगता है ||
तमाम दुश्वारियों का तुझसे नाता बस इत्तेफाक लगता है |
मौका ऐ वारदात , क़त्ल, और तेरा होना इत्तेफाक लगता है ||
तू बेगुनाह "मन" उनके साथ तेरा होना अजब इत्तेफाक लगता है |
पैरवी , अगुवाई , सब जगह तेरा होना भी अब इत्तेफाक लगता है ||
इस मुल्क का होना जैसे नागवार उनको, एक इत्तेफाक लगता है |
हर आफत की पैदाइश और एक "जनपथ" फिर इत्तेफाक लगता है ||
हर इत्तेफाक से इत्तेफाक खूब ,क्या ये भी बस इत्तेफाक लगता है |
तेरा होना ना होना भी "मन", सब इत्तेफाक ही इत्तेफाक लगता है ||
"आपातकाल", "बोफोर्स", "घोटाला युग" इत्तेफकों का सिलसिला है |
मुझे तो सब बेसबब ही बस सिलसिला - ऐ- इत्तेफाक लगता है ||
मुझे तो सब बेसबब ही बस सिलसिला - ऐ- इत्तेफाक लगता है ||
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