Thursday, May 5, 2011

कठिन है मुसलमां होना




रोज
खबरों पर 
मिडिया में 
खुद को
देखते 
पढ़ते 
सुनते 
समझ 
बौराने लगी है  
एक मेरे सिवा 
सब को 
फ़िक्र है 
मेरी नहीं 
मेरे मजहब 
और 
उस पर चिपके 
पैबंद की 
मैं भी 
"जिहाद "
चाहता हूँ 
जहालत 
गरीबी से
निजात चाहता हूँ 
मगर 
लगता है 
आसान है 
ऐसे ही 
खबरी मौत 
रोज मरना 
सचमुच 
बहुत 
कठिन है 
जीना 
जी कर 
मुसलमा होना ...

इस्लाम 
एक पिंजरा है 
जो 
उड़ना चाहता है 
और 
बंद भी रहना 
भीतर से !!!

Tuesday, May 3, 2011

वादा रहा जिंदगी !



बहुत बैचैन हूँ 
बेसब्र हूँ 
कुछ कह ना बैठूं 
कर ना जाऊं 
ऐसा 
कि 
पछताना पड़े 
मुझे 
और 
मेरे अपनो को 
बहुत अरमां 
संजोये है 
जिंदगी 
तेरे साथ 
तू रहे 
आबाद रहे 
तो 
तेरे साथ 
बहुत 
दूर का 
वादा रहा... |

Wednesday, April 27, 2011

करवट समय की



समय 
ऊंट सा 
चला जा रहा है 
संवेदना रहित 
निर्जन 
अमानुष 
शुष्क 
विस्तार में 
रस की 
चंद बूंदों को 
जहा 
फंदे बनाकर 
रिझाया जा रहा है ...
मृग की तृष्णा 
भ्रम नहीं है 
पर 
क्षितिज पर 
बहती 
उम्मीदों की नदी 
झूठ की लहरे
सब 
प्रपंच 
किसी और ही 
आयाम में 
रचे हैं ...
इन बिच्छुओं को 
प्यास नहीं लगती 
फिर भी 
तुम्हारा रक्त 
पीने को 
रच रहे है 
नखलिस्तान 
पर 
नखलिस्तान 
...
और 
तुम 
कहाँ पहुचोगे 
गर पार कर भी लो 
ये 
कलियुगी 
रेगिस्तान   ...


Tuesday, April 19, 2011

संधि पर संधि है "संधियुग"




हम चले जा रहे है 
अंधी सुरंग में 
हाथ थामे 
लड़ते 
गिरते 
कुचलते 
अपनो को 
परायों को 
जिनके पीछे

वो 
देख नहीं सकते 
अपनी नाक 
और 
निजी स्वार्थ से आगे
 
वो 
चाँद पर 
बस्तियों का 
बाजार बुनते है 

ताश में 
जोकर से हम 
बस 
एक तय 
राजा चुनते है 

संधियाँ 
उघडी पड़ी है 
नयी संधियों के तहत 
हम 
उनमे 
पुरानी संधियों के 
सुराग ढूँढते है  
  
जो 
तयशुदा ढंग से 
छुपा दिए गए है 
और 
निकाल लिए जायेंगे 
उसके द्वारा 

चौथा स्तम्भ 
अब  
श्वान बन चुका है 
अभ्यस्त
प्रशिक्षित 
अनुभवी भी 

वो 
हड्डी फैंकते है 
और ये 
दौड़ पड़ता है 

ज़रा ठहरों 
क्या उसके पीछे 
जाना जरुरी है?
 
अगर है 
तो 
संग विवेक भी 
धर लेना 
क्योंकि 
आगे 
रास्ता वही दिखाएगा 
ये श्वान तो 
तुम्हे बस 
अंधी गलियों में 
छोड़ आयेगा |
उन 
अंधी गलियों में 
बिछी है 
बारूदी सुरंगे 
जो 
अफवाह भर से 
फट पड़ेंगी 

तुम्हे फर्क पडेगा 
क्योंकि 
तुम सोचते हो 
तुम्हारा
एक घर भी तो है
 
ना उनको 
ना उनके महलों को 
नीव की 
आदत ही रही कभी 
ना ही जरुरत थी|

संधिया 
अब 
दरकने लगी है 
उनसे 
मवाद 
रिसती है 
दुर्गन्ध 
आती है 
तुम सम्भलों 
श्वान को तो 
बस 
वही 
भाती है | 

Monday, April 18, 2011

भारतीयता मौलिक ही रहेगी




या यू कहे 
कि
मौलिकता ही 
भारतीयता है 
तो 
ज्यादा सही होगा 
ज्यादा करीब होगा 

उस सच के 
जो 
छुप गया है 
दब गया है 
बाजारू सोच 
और 
हरदम बिकाऊ लोच
के पीछे 
बहुत नीचे कही 

जहा 
सोच 
और 
सिद्धांत 
सजावट भर है

नैतिकता 
सापेक्ष है 

धर्म 
चर है 

और 
आत्मा 
भौतिक वस्तु सी 
बोली पर चढ़ी है 

जिसे 
तुम प्रोफाइल कहते हो | 

Sunday, April 17, 2011

क्रान्ति जब होगी





तुम
टीवी पर 
ख़बरों में 
खुद को पाओगे 
खून से सना 

नंगी होंगी 
भूख 
हवस 
और 
उसके बीच 
बेबस 
तुम 

क्या तब भी 
सोचोगे 
इधर जाऊ 
या 
उधर ?

चुन लेना 
अपना पक्ष 
ताकत 
और 
खुले शब्दों में 
वरना 
मारे जाओगे 
अप्रत्यक्ष चयन की 
मृग मरीचिका में 

आज कौन 
अपने घर पर 
कमा 
खा 
रहा है 
फिर कौन 
कहा से 
इतनी संख्या में 
मतदान को 
आ रहा है ?
एक तो 
संविधान सुन्न है 
उसपर 
चुनाव प्रक्रिया पर 
आस्था का 
संकट 
गहरा रहा है |

रक्त रंजीत 
क्रान्ति का 
अध्याय 
लिखा जा रहा है 
मंचन का 
मंथन का 
मुहूर्त 
निकट आ रहा है |

कसम खाओ 
तब तक 
बटन नहीं दबाओगे 
जब तक 
"किसी को वोट नहीं "
और 
"मेरा वोट वापस दो"
का अधिकार 
नहीं पाओगे |

Saturday, April 16, 2011

आत्ममुग्ध राष्ट्र में संविधान की ताकत




इस संविधान को 
सैकड़ो बार 
आसानी से 
बदला गया है 
इसके 
अनुच्छेदों में 
छेद कर 
घर बना चुके है 
चूहें 
कंडीकाएं अब 
बस 
काडी भर करती है  
और 
गुदगुदाती है 
अपराधी सरपरस्तों को 
सभी खंड 
उपखंड 
खंड खंड हो 
खँडहर बना चुके है 
अपने ही 
भार में दबी 
हर इबारत को 
हर बंध 
उपबंध 
ढीला है 
समर्थों के लिए 
जिससे केवल 
फंदा बनाया जा सकता है 
मजबूरों के लिए 
वंचितों के लिए 
इसका महँगा जिल्द 
मुह चिढाता है 
फटेहालों को 
सही भी है 
इस मुल्क में 
इस एक किताब 
और 
उस एक झंडे की 
हिफाजत में 
कितने क़ानून है 
जो 
बालाओं के 
चीरहरण पर 
खामोश 
पन्ने पलटता है 
इसी किताब के 
जिनमे 
लिखे है 
पैतरे 
लाज लूट कर 
इज्जत पाने के 
झोपड़े डूबा कर 
महल बनाने के 
करोड़ो चीथड़ों को 
रुलाता 
लहरा रहा है 
शान से तिरंगा 
ऐ आत्ममुग्ध राष्ट्र !
सचमुच 
तेरी शान पर
रश्क होता है |