आज
कहाँ समझ पाओगे
कीमत आजादी की
जिसके बदले
ज़रा सा टैक्स देते
कराह उठते हो तुम
तुम क्या जानो
जब लगान में
पीढ़ियां पेल दी जाती थी
अय्याश हुकूमतों के
कोल्हू में
जब जवानी
नारी देह का
कोढ़ बन चुकी थी
और दो वक्त की रोटी
जिंदगियों का हासिल
तब
एक कतरा भी
आजादी का
तौल सकता था
मन भर लहुँ ...
और
मन भर लहुँ बहाकर भी
नहीं मिला करती थी
एक कतरा आजादी !!!
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