स्खलित होता ,
कुंठित ,
ढोता अपेक्षाएं,
सहता उपेक्षाए !
प्रवंचना...
दू:साहस
और
स्वप्न के बीच
भ्रम को
ब्रह्म मान
चौराहों पर
बिकता !
कुचला जाता ?
मेरे भारत का
गौरव बन सको
तो स्वयं को
युवा कहना !
वर्ना ...
शहीदी की राह भी
जवानो ने बना रक्खी है !
बस ये ना करना
कि
रोती माओं
बिलखती बेवाओं
को बेसहारा कर
पलायन कर लो ...
गुनाह है...
तरुणाई जो राह भटके !
तुम दीप बनना राह के ,
फूल ही बनाना ,
भले धूल बन
मिट जाना माटी पर !
मगर
भूल ना बनना,
ये भूल ना करना ,
बेशर्मी और नादानी का फर्क
ही बहुत है ...
शेष तो
कोई ठाकुर बना ही देगा
अपने आशीष के बल से
तुम्हे
नर से नरेन्द्र !
विवेक हो सदा
आनंद से पहले
ऐसे तुम कोटि कोटि
विवेकानंद बनो !
उत्तिष्ठ भारत !
प्राणवान हो !!
प्राणवान हो !!!
प्रज्ञा हो प्रखर ,
मानव की जिजीविषा का
अकाट्य एक प्रमाण हो !
तुम दान हो माटी को
पूज्य वंशधरो का
भारती का यश हो
यशगान हो !
विवेक हो सदा
ReplyDeleteआनंद से पहले
ऐसे तुम कोटि कोटि
विवेकानंद बनो
बहुत सुन्दर बात ... अच्छी प्रस्तुति
आदरणीया संगीता स्वरुप जी
Deleteआपको उत्तरायण पर्व , संक्रांति, पोंगल , बिहू एवं लोहड़ी की
बहुत बहुत शुभकामनाएं !
जय श्री कृष्ण जी !