Wednesday, July 28, 2010

मार्केटिंग

थोड़ा श्रम
बहुत सी शर्म
और
सारी इंसानियत को
बुझे हुवे
आत्मविश्वास की राख में
लपेट कर
बेचने की कला है
"मार्केटिंग "

"उत्तरदायित्व"
नीचे की ओर
"श्रेय"
ऊपर की ओर
सहज
प्रवाहित है |
स्वीकार्य
ओर
अपरिहार्य
की लड़ाई में
विवेक को
तिलांजलि देना
शोर्य
ओर
समर्पण है जहा |

"ग्राहक देवता है "
जैसे जुमलो के बीच
"आज नकद कल उधार "
जैसी पंक्तियों से
जंग लगे पतिलो
ओर दीमक खायी
लकड़ियों वाली दुकाने ,
अब
सिमटती
सहमति सी ,
शहर के
पुराने
उपेक्षित
कोनो में ...
पड़ी खाद बन रही है |
बुढा गए
घाघ दुकानदार
चकाचौध
ओर
प्रचार
की गर्मी से
झुलसे
तपे
अंतिम साँसे गिन रहे है ...

बाजार के
परिचित
ओर
अपरिचित
कोनो में
बहुराष्ट्रीय
प्रतिष्ठित
"ब्रांड" का कब्जा है ...
जिसे
अतिक्रमण कहना
अशोभनीय
ओर
अनागरीय होगा !

किसान
और
साहूकार
का बेटा
जहां
मजदूर बनकर
चाकरी
करने को
लालायित है |
चमचमाती गाड़ियों ,
उन्मुक्त संस्कृती ने
चौंधिया दी है
युवान आँखें
जो
देख सकती थी
स्वदेश
ओर
सुदेश
से कही आगे |

सेक्स ओर भोग
परोसा जा रहा है
खुला ...
सरकार !
बना रही है
व्यवस्था को
लचीली / लिजलिजी
जो
वैसे
कभी
नहीं बदली
कितनी आत्महत्याओं
आंदोलनों के बाद

अब
लोकतंत्र
और
धर्मनिरपेक्षता
के मुखौटे
बेचते
दलाल ...
दाल ओर चीनी
के सहारे
भाग्यविधाता
बन
सरकार बदलते है !
विचार
विचारधाराएं
बदलते है !!
जैसे
पूरे आधे नंगे मोडल
उतारे हुवे
कपडे बदलते है

अरे
शर्म बेचकर ही
सब हासिल है अगर
तो
सब हासिल चुका कर
एक पल का सुकून
ओर
खुद से आँख मिलाने
की हिम्मत
खरीद कर बताओ
फिर
फैसला करना
वक़्त से ये होड़
कितनी
महंगी पड़ी ???

धर्म ,
इंसानियत,
नैतिकता
और
भावनाओं तक
सब
दाव पर
लगा बैठा है
युग
और
वक़्त
ध्रतराष्ट्र बना
प्रतीक्षा में
बैठा है
मौन
ताकि
सुन सके
महाभारत से
ठीक पहले
पांचजन्य का स्वर
ओर
कृष्ण की बानी
किसी
संजय की जुबानी ...

Saturday, July 3, 2010

सच की बोली !

आज प्रेरणा चाहिए
मुझे भी
और समय को भी
संचित सभी
चुके विवेक
और
रच चुके चूहें
इतिहास |

ठिठोली बन गया
ज्ञान का जरिया
उपकरण सारे
झुनझुने बन
समझ का
मखौल बना चुके

अब सब्जी वाला
भी सुर में लगता है
उससे जो गाते है
गिद्धों और सुवरों
की नैतिकता
भारी पड़ रही है
मानवीय मनीषा पर

यशश्वी धर रहे है
चरणरज चोरों की
सर माथे
धूप सबको दिखती है
सूरज
कही दिखता नहीं

महक का फुल से सरोकार
ख़त्म कर चुके
भावनाओं तक के
ओंछे दुकानदार
अब सिर्फ
सच बचा है
जिसको
खरीदने की औकात
अब तक तो
दिखी नहीं
है कोई !!!
जो सच ख़रीदे ....
खुद बिककर !
बोली एक !
बोली दो !!
....

Thursday, July 1, 2010

सरस्वती-पुत्र, एक विडम्बना !

ये वक़्त भी
गुजर जाएगा
फिर नया कोई
दौर आयेगा |

तब लिखूंगा
कविता
देशकाल
और
समाज पर

मिल जाए
पुरस्कार ,
कुछ राशि ,
रोयल्टी ...वगैरह |

बिटिया का ब्याह
बेटे का ठौर
क्या
कवि की
कोई जिम्मेदारी नहीं ?

साहब !
आप तो
समझ ही नहीं सके
के क्यों
लिखते है
कवि छद्म नाम से ?

क्यों ?
कोई कवि
आगे नहीं चलता
किसी
जनांदोलन में ?

क्यों
प्रसंस्तिया ..
शोक / विरह गीत
और
श्रृंगार रत
रहता है सदा कवि ?

क्यों
उसके अश्रुओं से
नहीं धुलती
उसकी अपनी स्याही
या
क्यों नहीं जल उठत़ा
कागज़
उसकी ज्वलंत लेखनी से ?

क्यों
आखिर क्यों ?
सरस्वती-पुत्र कहलाता
बैठा है
हारा
नाकारा
निस्तेज
अपनी ही माया में
मस्त
सहता क्लेश ,
नियोजित कष्ट !!!

Monday, June 28, 2010

थूंक के छींटे ..अगली पीढ़ी तक !

उसने जब
सड़क पर थूका
बेलिहाज
बेअदब
शायद
बेसबब नहीं था |
रोज
सैकड़ो हजारों
की ये हरकत
जिसमे
कुछ अजब नहीं था ,
खटकी थी
अटकी थी
चंद निगाहों में |

जिन्हें
जीवन
गिनती सा सरल
और पहाड़े जितना
कठिन लगा होगा |
..अब तक |

"मास्साब" वो आप थे ?
नहीं ! नहीं !
कोई हमशक्ल रहा होगा |

Sunday, June 27, 2010

क्रान्ति !!! , कब ????

क्रान्ति के पूर्व
होती है छटपटाहट
भीतर
कही कोने में
नक्कारखाने में
तूती की तरह
जैसे
रात के अँधेरे में
करते हो शोर
ढेर सारे झींगुर
मगर ...
क्रान्ति नहीं होती
लोग जागते है
या
जब अलसभोर हो
या
जब सिंह दहाड़ते है
निकट ,
निपट,
निर्भीक !

Monday, June 21, 2010

मेरी अपनी एक डगर है

कोई साथ चले ना चले
मुझे भीड़ से क्या लेना |
मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

भीड़ मिटा देती स्व को |
भीड़ बड़ा देती भव को |
मै लिए सहज समभाव |
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

भीड़ फिरा देती है सोच |
जगा कर उन्मादित जोश |
रुग्न ज्वर सी वेदनामय ,
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

कसमसाता विवेक मुट्ठियों में
लहराता ज्यों सागर पर फेन |
जो अबूझ पहेली , हो स्वयं प्रश्न
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

मेरी अपनी एक डगर है
मुझे भीड़ से क्या लेना ||

Friday, June 18, 2010

याद है मुझे कब पिछली बार हँसी थी वो

याद है मुझे कब पिछली बार हँसी थी वो ,
मेरी ही किसी बात पर बहुत हँसी थी वो |
जाने तब क्या सोच कर बहुत हँसी थी वो ...
खैर जो भी हो मगर क्या खूब हँसी थी वो |
हंसते हुवे पल्लू से ढँक लिया था चेहरा
आँचल के पार बिखर गयी ऐसी हंसी थी वो |
मैं भी हंसा था साथ था हाथों में उसका हाँथ
लेकर हाँथ मेरे साथ सारी रात हँसीं थी वो |

नहीं भूलती उसकी खनक आज भी सुनता हूँ
किसी घुंघरूं किसी पायल कि सी हँसी थी वो |
रूप और भी उजास से रंगों से भर गया था उसका
कोई भूलना भी चाहे ना भूले ऐसी हँसी थी वो |

एक अहसान है मुझपर उसका चुकाए नहीं चुकता
दिल उदास था उसका थी परेशान फिर भी हँसी थी वो |
उसकी हँसीं पर वरना क्यों नज्म लिखता यु ही तरुण
सारे अपने गम भुला के सिर्फ मेरे लिए हँसी थी वो |